किस ओर चलूँ मैं
काव्य साहित्य | कविता प्रो. हरिशंकर आदेश22 May 2004
जब बंद हैं सब रास्ते, किस ओर चलूँ मैं?
दीपक समान अनवरत दिन रात जलूँ मैं॥
अवहेलना करूँ भला कब तक यथार्थ की,
बस कल्पना के स्वर्ग में अब पलूँ मैं॥
चलता जहाँ से लौट के आ जाता वहीं पर,
पंथों की जटिलता से मन को और छलूँ मैं॥
पाषाण से निर्वाण की आशा लिए जिया,
अंतिम समय सिद्धांतों से कैसे टलूँ मैं॥
आया था अकेला अकेला ही जाऊँगा,
फिर क्यों किसी की माँग में सिन्दूर मलूँ मैं॥
जो है नियम नियति का उसको कैसे टाल दूँ
सित यामिनी में कैसे सूर्य बन के ढलूँ मैं॥
शशि शशि है, सूर्य सूर्य है, ध्रुव सत्य है अटल,
आंचल में दिन के शशि समान कैसे पलूँ मैं॥
जब बो रहा था बीज, न सोचा था तब कभी,
बोये थे शूल किस तरह बन फूल खिलूँ मैं?
आ जाओ एक बार तो मेरे अतिथि बनो,
पथ में बिछा के नेत्र, पलक - पंखा झलूँ मैं॥
अब तो चला-चली की घड़ी है, न रूठिए,
बस हँस के विदा कीजिए, अब घर को चलूँ मैं॥
मैंने सभी को प्यार दिया, मान दिया है,
सबके हृदय में, चाह, बन-स्मृति-फूल खिलूँ मैं॥
अब शेष हुई कामना जीने की जगत में.
क्यों? किसलिए? किसके लिए? प्राणों को छलूँ मैं॥
जो भी हुई हो त्रुटि, विवाद, भ्रांति या अपराध,
कर दीजिए क्षमा, हे नाथ! पाँव पड़ूँ मैं॥
जितना प्रयास करता हूँ सुलझूँ, उलझ रहा,
पड़ एषणा के जाल में, निज को न छलूँ मैं॥
हर ओर सुख - समृद्धि है, हर ओर दु:ख - व्यथा,
स्वीकार निमंत्राण करूँ, किस ओर चलूँ मैं॥
"आदेश" पकड़ हाथ मेरा, पार ले चलो,
जिस ओर कहो, आज उसी ओर चलूँ मैं॥
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