अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

किस ओर चलूँ मैं

जब बंद हैं सब रास्ते, किस ओर चलूँ मैं?
दीपक समान अनवरत दिन रात जलूँ मैं॥
 
अवहेलना करूँ भला कब तक यथार्थ की,
बस कल्पना के स्वर्ग में अब पलूँ मैं॥
 
चलता जहाँ से लौट के आ जाता वहीं पर,
पंथों की जटिलता से मन को और छलूँ मैं॥
 
पाषाण से निर्वाण की आशा लिए जिया,
अंतिम समय सिद्धांतों से कैसे टलूँ मैं॥
 
आया था अकेला अकेला ही जाऊँगा,
फिर क्यों किसी की माँग में सिन्दूर मलूँ मैं॥
 
जो है नियम नियति का उसको कैसे टाल दूँ
सित यामिनी में कैसे सूर्य बन के ढलूँ मैं॥
 
शशि शशि है, सूर्य सूर्य है, ध्रुव सत्य है अटल,
आंचल में दिन के शशि समान कैसे पलूँ मैं॥
 
जब बो रहा था बीज, न सोचा था तब कभी,
बोये थे शूल किस तरह बन फूल खिलूँ मैं?
  
आ जाओ एक बार तो मेरे अतिथि बनो,
पथ में बिछा के नेत्र, पलक - पंखा झलूँ मैं॥
 
अब तो चला-चली की घड़ी है, न रूठिए,
बस हँस के विदा कीजिए, अब घर को चलूँ मैं॥
 
मैंने सभी को प्यार दिया, मान दिया है,
सबके हृदय में, चाह, बन-स्मृति-फूल खिलूँ मैं॥
 
अब शेष हुई कामना जीने की जगत में.
क्यों? किसलिए? किसके लिए? प्राणों को छलूँ मैं॥
 
जो भी हुई हो त्रुटि, विवाद, भ्रांति या अपराध,
कर दीजिए क्षमा, हे नाथ! पाँव पड़ूँ मैं॥
 
जितना प्रयास करता हूँ सुलझूँ, उलझ रहा,
पड़ एषणा के जाल में, निज को न छलूँ मैं॥
 
हर ओर सुख - समृद्धि है, हर ओर दु:ख - व्यथा,
स्वीकार निमंत्राण करूँ, किस ओर चलूँ मैं॥
 
"आदेश" पकड़ हाथ मेरा, पार ले चलो,
जिस ओर कहो, आज उसी ओर चलूँ मैं॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं