माँ की बरसी
काव्य साहित्य | कविता निशा भोसले4 Feb 2019
माँ की बरसी है
मैं तस्वीर पर लगा रही थी
चन्दन का टीका
और देख रही थी/माँ की आँखों को तस्वीर में
हज़ारों सपने समेटे हुए हैं
माँ नहीं चाहती थी
उन सपनों का
यूँ ही जल जाना
लेकिन माँ के सपनों के साथ
हमेशा होते रहे बिखराव
माँ बचाना चाहती थी
गाँव के मकान/खेतों को
बटवारे से
लेकिन बाबूजी को करना पड़ा बटवारा
मकान/खेतों का
बेटों के मनमानी के डर से
बटवारा करते समय
बाबूजी ने माँ को
भेज दिया था पीहर
उन्हें पता था माँ
सह नहीं सकेगी
इस बटवारे का दर्द
माँ बताती थी मुझे
जब वह लौट आई थी/गाँव
और अपनी आँखों से
बटवारे को देखकर
वह रो पड़ी थी
बट गया था खेत
बट गया था मकान
बट गया था चूल्हा
बट गये थे बर्तन
यहाँ तक कि बच्चों के सपने भी
बट गये थे
कैसे सहा होगा माँ
दर्द बटवारे का
बताती है उनकी आँखें
आज भी तस्वीर में
उम्र के ग्याहर बारह सालों से
माँ इस घर को
सजाती रही और
अपने सात बच्चों के
सपनों को साकार करने में उलझी रही
आज नहीं है माँ
उनके सारे बच्चे बिखर गये हैं
माँ के सपनों की तरह।
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