मैं आज़ादी ठुकराता हूँ
काव्य साहित्य | कविता डॉ. विक्रम सिंह ठाकुर31 Oct 2014
जब दुनिया की भीड़ में यारों
मैं खुद को तन्हा पाता हूँ
कुछ ऐसे मंज़र देख के यारों
मैं बोहोत डर जाता हूँ
बोझा ढोता बूढ़ा बाबा
जब भी कोई देखूँ मैं
अपने काँधे देख के यारों
शर्म से झुक सा जाता हूँ
जब कोई छोटी भूखी बच्ची
हाथ फैलाये आती है
घर बैठी अपनी बच्ची को
मैं सोच बोहोत घबराता हूँ
जब देखूँ उस बूढ़ी बी को
जिसकी आँखे है पथराईं
अपनी माँ को याद मैं कर के
बस रोता ही जाता हूँ
जब कोई औरत बिन पैराहन
सामने मेरे आती है
अपनी बीवी की साड़ी को
सोच बोहोत शर्माता हूँ
कोका कोला पीतीं नस्लें
जब भी यारों देखूँ मैं
गन्दा पानी पीते बच्चे
सोच सिहर सा जाता हूँ
गर यही है आज़ादी
और ऐसा मेरा हिन्दुस्तान
तो माफ़ी देना मेरे यारों
मैं आज़ादी ठुकराता हूँ
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