मैं बारिश
काव्य साहित्य | कविता ऋतु सामा1 Sep 2020 (अंक: 163, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
देखो कैसे, मैं बारिश, आ गयी फिर से
कई तप्ती दोपहरों से नज़र बचाये
सुबह से छिप के बैठी थी चुपचाप
उन काले बादलों की चादर उढ़ाये
कड़कती गूँज तुम्हें बुलाये मेरे साथियों की
बाहर आ जाओ काम को छोड़े
पिट्ठू खेलेंगे गीली ज़मीन पर
और मैं भी तो मज़े लूँगी अपनी जीत के
जब तुम फिसलने लगोगी न पैर जमाये
कितनी धूल भर दी थी तुमने
हवा रूखी और बद मिज़ाज,
कर दी तुमने..
और सूरज गुस्से से गुर्रा रहा था
तुम्हारी आँखों को बेवज़ह ही सता रहा था
क्या करती फिर रहा न गया
ऐसा लगा तुमने ख़ामोशी से मुझसे ये कहा
'इतनी चकाचौंध भरी दोपहरी
मेरे जीवन से जैसे रस को खींच रही है
कहना चाहती हूँ कविताएँ कई
पर मेरे शब्दों को जैसे ये मींच रही है
बारिश की बूँदों से इसे ढक दो ना ज़रा
मौसम में लय को आने दो थोड़ा
मुझे भी एक बहाना मिल जाएगा
मेरा मन भी सुर में गुनगुनाएगा
फिर क्या था...
फिर क्या था, मुझे तो आना ही था
तैयार बिजली और गरजन का फ़साना भी था
अब देखो न दोपहर को–
कैसे मैंने सुहावना कर दिया
कराहते लम्हों को कैसे
शरारती यादों में बदल दिया
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