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मैं गंगा सी पावन नहीं

मैं गंगा सी पावन नहीं हूँ प्रिये,
हूँ इंसान कई गुनाह मैंने भी किए॥

 

बन कर बहन, बेटी, बहू अवतार मैंने कई लिए,
एक चेहरा है मेरा मगर ढेरो किरदार जिए।
सिसकते रहे हैं लब मेरे तड़पती रही जान,
दहेज़ के नाम से है विष के प्याले भी पिए॥

 

मैं गंगा सी पावन नहीं हूँ प्रिये,
हूँ इंसान कई गुनाह मैंने भी किए॥

 

हूँ नहीं तेरी माशूका सिर्फ़ एक बेटी भी मैं हूँ प्रिये
अक्सर मैंने अपनों की ख़ातिर कड़वे घूँट हैं पिये
पाना तुझे भी था, ना था घर को भी खोना,
कैसे निभाती मैं वो क़समें वादे जो तुझसे किए,
कुछ पाप तो ना चाहते हुए मैंने भी किए

 

मैं गंगा सी पावन नहीं हूँ प्रिये,
हूँ इंसान कई गुनाह मैंने भी किए॥

 

बहुत इल्ज़ाम तेरे अपने सर कर लिए,
यही है संस्कार मुझको मेरी माँ ने दिए,
तुमसे बढ़कर है घर की इज़्ज़त-ओ-आबरू,
यही सोच कर बुझा लिए चाहतों के दिये,

 

मैं गंगा सी पावन नहीं हूँ प्रिये,
हूँ इंसान कई गुनाह मैंने भी किए॥

अपने प्रेम की अब तुम न देना कोई दुहाई प्रिये
तुम्हें वास्ता है उन पलों का जो हमने साथ जिये
ख़्वाहिशें दबा, तुम अरमाँ भी जला देना
घर तुम भी बसा लेना अपनों के लिए॥

 

मैं गंगा सी पावन नहीं हूँ प्रिये,
हूँ इंसान कई गुनाह मैंने भी किए॥

 

ख़्वाब अब अपने मैंने भी फ़ना कर लिए,
कल को तंज ना कसे कोई बेटियों के लिए,
पढ़ाए लिखाए उनपे कोई शक ना करें,
यही चाहत में मैंने अपनी चाहत पे पर्दे किए॥

 

मैं गंगा सी पावन नहीं हूँ प्रिये,
हूँ इंसान कई गुनाह मैंने भी किए॥

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टिप्पणियाँ

Nitish Singh 2019/11/27 11:59 PM

आपकी काव्य अच्छी है।

कृपया टिप्पणी दें

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