मैं कलूटी हूँ
काव्य साहित्य | कविता प्रिया 'गुमनाम'1 Apr 2019
बड़े ही ख़ूबसूरत हो तुम
ख़ूबसूरत है ये सारा जहाँ
मुझसे कभी
दिल मत लगाना
ठगा हुआ महसूस करोगे
क्योंकि मैं कलूटी हूँ
मुझे कभी इंसाफ़
नहीं मिलेगा
वो साला यूँ ही
खुला घूमेगा
क्योंकि मैं कलूटी हूँ
मैं बदसूरत हूँ, मैं दाग़ी हूँ
कभी तुम मेरी
तारीफ़ मत करना
अपनी माँ से कभी मेरा
ज़िक्र मत करना
वरना वो पूछेंगी,
"मैं कैसी दिखती हूँ?"
कहना उन्हें -
"मैं कलूटी हूँ"
सारा ज़माना मेरी
खिल्ली उड़ाता है
हर कोई अपना
चेहरा छिपता है
मैं भी...
क्योंकि मैं कलूटी हूँ
कभी मुझसे
इज़हार मत करना
ख़ूबसूरत लड़कियाँ हैं
और भी यहाँ
मैं तो कलूटी हूँ
चोट लगने पर
हर कोई पूछ लेता है
मुझसे कोई नहीं पूछता
क्यों...?
क्योंकि मैं कलूटी हूँ
परवाह नहीं है,
किसी को मेरे हक़ की
क्या ऐ ज़माने -
तुम दोगे मेरा हक़
चल छोड़...
फिर कहोगे मैं कलूटी हूँ
मैं सुबककर रोऊँगी
मैं गिरूँगी
लेकिन तुम कभी
मुझे मत उठाना
क्योंकि मैं तो कलूटी हूँ
वो साला आज भी
घूरता है मुझे,
मैं बचने के लिए
नक़ाब पहनती हूँ
क्यों...?
क्योंकि मैं कलूटी जो हूँ!
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