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मेरी कविता रोती है

सियासत के गलियारों में
जब कुशब्दों के बाणों से
ओछी बातें होती हैं
तब मेरी कविता रोती है।


विश्वपटल के मंचों पे
विभीषणरूपी कंठों की
जब वाणी असंतुलित होती हैं
तब मेरी कविता रोती है।


फैली भूख और ग़रीबी को
अनदेखा करती राजनीति
मनसूबों की नुमाइश होती हैं
तब मेरी कविता रोती है।


कहें तरक़्क़ी फिर भी व्यवधान
वही रोटी कपड़ा और मकान
जब लाचारी घर में सोती है
तब मेरी कविता रोती है।


बालश्रम पर नियम क़ायदे
पर बिना काज की लाचारी
स्थिति भूख कुपोषण होती हैं
तब मेरी कविता रोती है।


यूँ तो युवा भविष्य देश के
पर पढ़े लिखें और धक्का खाएँ
जब बेरहम बेरोज़गारी होती हैं
तब मेरी कविता रोती है।


शासन प्रशासन कोर्ट कचहरी
सब राजशाही के दूजे नाम
रो धोके सुनवाई होती हैं
तब मेरी कविता रोती है।


कहने को ये सदी इक्कीसवीं
पर माँग न्याय अधिकारों में
यहाँ दुश्वारियों की पोथी है
तब मेरी कविता रोती है।


कर कर के कर देता जा
मर मर के खज़ाने भरवाती
जब सरकार मनोरथ धोती है
तब मेरी कविता रोती है।


महिला सशक्ति की बातें
उन मंचों के पखवारे से
जिनसे अस्मत तार-तार होती है
तब मेरी कविता रोती है।


वीर शहीदों पर राजनीति
श्रेय लेने की होड़ लिए
जब कुत्सित स्वप्न सँजोती है
तब मेरी कविता रोती है।


सियासत के गलियारों में
जब कुशब्दों के बाणों से
जब ओछी बातें होती हैं
तब मेरी कविता रोती है।


विश्वपटल के मंचों पे
विभीषणरूपी कंठों की
जब वाणी असंतुलित होती है
तब मेरी कविता रोती है।

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