मृग तृष्णा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. प्रभा मुजुमदार24 Jun 2008
अक्सर जिया है मैंने
अपनी ही अधलिखी कहानियों
और अपूर्ण ख़्वाबों को
सपनों में अश्वमेध रचाकर
कितनी ही बार
अपने को चक्रवर्ती बनते देखा है
रोशनी हमेशा ही
एक क्रूर यंत्रणा रही है
दबे पाँवों आकर
चंद सुखी अहसासों
और मीठे ख़्वाबों को
समेट कर
चील की तरह
पंजों में ले भागती हुई
एक खालीपन
और लुटे पिटे होने का दंश
बहुत देर तक
सालता रहता है
फिर किसी नये भुलावे तक।
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