क्रमशः
काव्य साहित्य | कविता डॉ. प्रभा मुजुमदार24 Jun 2008
टूटे दर्पण से
परावर्तित होकर
अपनी ही अलग अलग आकृतियाँ
धुँधलाती जा रही हैं ।
एक आवाज़ जो
निर्जन खण्डहर की दीवारों से
प्रतिध्वनित होकर
बार बार गूँजती है
खामोश होने से पहले।
समय के लम्बे अन्तराल में
बहाव की दिशा बदलती हुई
एक नदी
सभ्यता के कितने ही
तटों को
पीछे छोड़ चुकी है
वे जिंदा किले और
गूँजते हुए महल
खामोश खंडहरों में
बदल चुके हैं...
जिनके पीछे बहता हुआ
छोटा सा एक झरना
रेगिस्तान ने निगल लिया है।
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