नाटक था क्या?
काव्य साहित्य | कविता कुमार शुभम15 Nov 2020 (अंक: 169, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
नाटक था क्या?
देर रात तक बातें करना,
छोटी-छोटी बातों पर मुँह मोड़ना,
गर्मियों के ग़ुस्से में शाल ओढ़ना,
और, मेरी शर्ट के लाल दाग़ की कड़ी से कड़ी जोड़ना,
नाटक था क्या?
मेरी माँ की तारीफ़ें करना,
मेरे बाबा की घड़ी जोड़ना,
मेरे भाई को स्कूल छोड़ना,
और मेरे लिए किताबों के वो पन्ने मोड़ना,
नाटक था क्या?
मेरी गहरी सोच के बारे में सोचना,
मेरे दोस्तों को रूहअफ़जा परोसना,
पट्टी बदलना, जब तक आये मुझे होश न,
और हौसला बढ़ाए, जब थी मुझमें जोश ना . . .
नाटक था क्या?
सोचा मेरी हाथों के लकीरों में तुम थी,
पर जब देखा तो आधी लकीरें ही गुम थीं,
इसकी वज़ह, इसका कारण, इसका सबकुछ तुम थी,
क्यूकि आया न कोई और तुम भी गुमसुम थी।
आयी न तुम, जब बिलख कर रोया,
नहीं जानती तुम उस दिन क्या क्या नहीं खोया . . .
शायद नाटक ही था . . .
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