नए मकां है
शायरी | ग़ज़ल देवमणि पांडेय19 Dec 2014
(मुफ़ाइलातुन मुफ़ाइलातुन मुफ़ाइलातुन मुफ़ाइ्लुन)
नए मकां हैं, नई कोठियाँ, बँगले आलीशान वग़ैरह
बिछड़ गए हैं घरों से आँगन,खिड़की,रोशनदान वग़ैरह
पढ़े-लिखे भी भटक रहे हैं अर्ज़ी कहाँ लगाएँ वो
इकदिन वो भी बन जाएंगे चपरासी, दरबान वग़ैरह
सूख गईं जब फ़सलें उनकी काम ढूँढने शहर गए
गाँव में रहते तो क्या खाते रामू और रहमान वग़ैरह
रोज़ी-रोटी के चक्कर में हमने ख़ुद को गँवा दिया
कहाँ गया अपना वो चेहरा, कहाँ गई पहचान वग़ैरह
दूर-दूर तक आदर्शों से रिश्ता नहीं सियासत का
ढूँढ रहे हैं क्यूँ इनमें हम सच्चाई, ईमान वग़ैरह
कम से कम इतवार के दिन तो अपने घर पे रहा करो
बिना बताए आ जाते हैं कभी-कभी मेहमान वग़ैरह
हम हैं सीधे-सादे इंसां कोई नशा नहीं करते
यार-दोस्तों की सोहबत में खा लेते हैं पान वग़ैरह
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