पानी की दीवार
काव्य साहित्य | कविता नवल पाल प्रभाकर30 Jan 2016
बचपन में मैंने
बड़ों के मुँह से
सुना था कि....
हमारे रिश्तों के बीच
कोई दीवार खड़ी है।
परन्तु शायद उस समय मैं
अबोध बच्चा था।
उनकी बात को
ठिठोली समझता था।
पर आज पता चला कि
हाँ, रिश्तों में कभी-कभी
कोई दीवार अपने-आप
बन जाती है।
उसमें मिट्टी चूने या फिर
ईंटों की जरूरत नहीं होती
यह दीवार होती है तो सिर्फ
पानी की दीवार होती है।
शुद्ध पानी की दीवार
जो बिल्कुल साफ होती है।
जिसके उस तरफ की
हरी-भरी दुनिया
दिखाई तो देती है मगर
उस तरफ जाना कठिन होता है
क्योंकि बीच में ये दीवार होती है।
दीवार की ऊँचाई असीमित
गहराई की सीमा नहीं
इसीलिए चाह कर भी
इसे पार करना कठिन होता है।
और वो ख़ुशियाँ
दीवार के उस पार से,
बस निहारती रहती हैं।
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