पण्यसुंदरी
काव्य साहित्य | कविता कहफ़ रहमानी 'विभाकर'9 Mar 2014
मैं पण्यसुंदरी,
नरोद्विग्न मन की।
यह सुश्रोणि, समुन्नत उरोज, मधुमत्त कटि
विभासित उन स्पर्शों से।
मैं एक वस्तु!
यौनिकान्न, तप्त-तप्त रुधिर का।
अवगुंठित योषिताभिव्यक्ति मुखरित सर्वत्र यह लोकोक्ति
"कर अर्पित यौवनोपहार
क्षम्य नहीं कौमार्य"।
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