पुनर्जन्म
काव्य साहित्य | कविता ज़कीया ज़ुबैरी28 Apr 2008
गहरे हो जाते हैं
दरख़्तों के साये
चाँद जब उगता है
छन छन कर आती हैं किरणें
अहसान जताती हैं
पतझड़ की मार खाये पत्ते
नीचे सूखी घास को
सिर्फ़ तसल्ली देते हैं
अपनी निकटता से।
जब वो घास के ऊपर
अपना बिस्तर सजा लेते हैं
घास के कराहने की आवाज़
उस वक्त सुनाई देती है।
राहगीर
भारी कदमों से
चहलकदमी करते।
कुम्हलाए हुए
पीले, नारंगी और भूरे पत्ते
वियोग के आँसू बहाते
कोमल शाखों से बिछड़े।
जानदार को बेजान समझ
कुचल देते हैं।
और वो
पुनर्जन्म की हल्की सी उम्मीद
दिल में लिए
क़ुरबान हो जाते हैं।
चाँद की किरणें
तसल्ली की फुहार बरसाती
सूरज की रोशनी में
दम तोड़ देती हैं।
पुनर्जन्म की उम्मीद में
और गहरे हो जाते हैं साये
जब चाँद उगता है
बे-मक़सद सा चाँद।
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