क़तरे को इक दरिया समझा
शायरी | ग़ज़ल देवमणि पांडेय3 May 2012
क़तरे को इक दरिया समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
हर सपने को सच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
तन पर तो उजले कपड़े थे पर जिनके मन काले थे
उन लोगों को अच्छा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
मेरा फ़न तो बाज़ारों में बस मिट्टी के मोल बिका
ख़ुद को इतना सस्ता समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
बीच दिलों के वो दूरी थी तय करना आसान न था
आंखों को इक रस्ता समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
पाल पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गये
ख़्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
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