राजनेता
काव्य साहित्य | कविता आचार्य बलवन्त29 Nov 2014
राजनेता, जनता की भड़ांस पर
स्वार्थ की रोटियाँ पका रहे हैं।
दो, चार फेंक देते हैं।
चिल्लाते हुए कौओं को चुप रहने के लिए,
शेष ख़ुद ही खा रहे हैं।
अपनी पहचान के लिए,
झूठी शान के लिए,
पैसे को पानी की तरह बहा रहे हैं।
ये जनता के सेवक हैं,
जो जनता को ज़िन्दा ही जला रहे हैं।
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