सभ्य चेहरे
काव्य साहित्य | कविता सुधेश14 Apr 2014
उन के गाल ख़रबूज़े
होंठ अँगूरी नयन मृग से
करते शिकार
पर ख़ुद शिकार भी
कैसा वक़्त आया
ये सभ्य चेहरे
गोरांग लिपे पुते
सुबह सात बजे बने ठने
मगर सब के सब
दिन भर अनमने
क्या बने बात जहाँ
बात बनाये न बने।
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