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समय (समीक्षा तैलंग)

मैं समय के आगे नतमस्तक हूँ!

नख से शिखर तक और,
फिर उस शिखर पर इतराते हुए,
किसी को उसी मिट्टी में नेस्तनाबूद करना,
ये मेरे बस में तो नहीं था…।

तुम ही थे, जिसने बचपन और बड़प्पन दिया,
पर मैंने इसी कश्मकश में, सारी ज़िंदगी गुज़ार दी,
कि क्या, उम्र का बढ़ना ही बड़प्पन है?
या केवल, "निर्मल आत्मा" ही काफ़ी है।

उन गोताखोरों को समुन्दर में डूबते देखा है,
जो, तुम्हें ढूँढने निकले थे,
पर ये भी उस फ़साने से कम नहीं था,
जो रेत को, मुट्ठी में करने की कोशिश करते थे।

चाह, उस माया की थी, पर,
माया में ही चाह खोजते रहे,
ता-उम्र, बस तुझे पाने की ललक में,
ख़ुद को आँकना ही भूल गए।

हाथ की अंगुलियों में, फेरते मनके,
मानक नहीं हैं, उस उम्र के,
फिर, क्यों नहीं समझ पाते कि
जवानी में हाथ जोड़ना/शीश झुकाना –
कोई गुनाह तो नहीं।

तेरा-मेरा, मेरा-तेरा, करते-करते,
उस मिट्टी में, तमाम होने का समय आ गया,
पर अब तो मैं, उन मनकों को,
सँभालने के, लायक़ भी नहीं था।

बस, "काश" ही था अब "शेष",
अंतिम क्षण तक, यही एहसास था,
कि, जब तुम, मेरे साथ मेरे पास थे,
क्यों, उस क्षितिज पर जाने की ज़िद की।

जो हाथ में था, उसे भी गँवा दिया,
जो नहीं था, खोज में उसकी निकल पड़े,
आज जो कहकशां मुझे बुला रही है,
तब (पहले), जो सच मैं मान लेता,
कोई रंज ना होता, आज मुझे,
क्योंकि…
आज, मैं उस कहकशां का ‘राजा’ तो होता।

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