अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

श्रद्धांजलि - पूर्व प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को

प्रस्तुति : शकुन्तला बहादुर, कैलिफ़ोर्निया

 

हे भारत माँ  के “लाल”  तुम्हें, 
मेरा शत शत है  नमस्कार।
हे जनता के सच्चे प्रतिनिधि, 
जन जन का शत शत नमस्कार॥


मानवता के  रखवाले तुम, 
हर मानव का है नमस्कार।
हे विश्वशान्ति के अग्रदूत, 
है जग का तुमको नमस्कार॥


बचपन कष्टों में पला मगर, 
जीवन में हँसना सीखा था।
कर्मठता आँचल  में  बाँधे, 
जेलों  में रहना सीखा था॥


बापू,नेहरू सम गुरू मिले, 
तव मार्ग प्रदर्शित करने को।
दी  भेंट विरासत में तुमको, 
दुष्कर नेतृत्व निभाने को॥


अति विषम परिस्थितियों में भी, 
हो निडर सदा डट जाते थे।
फिर गहन  समस्याओं  के  घन, 
तेरे सम्मुख छँट जाते थे॥


निज सरल, मधुर बातों से तुम, 
जन जन का मन हर लेते थे।
जाने  किस  वशीकरण  द्वारा, 
सबको अपना कर लेते थे॥


माता की आँखों में आँसू, 
तुम देख कभी क्या सकते थे?
बर्बर दुश्मन पद-दलित करे,
ऐसा क्या तुम सह सकते थे?


बातों  की  भी सीमा  होती, 
सहने  की  सीमा  होती  है।
पर  बात नहीं जब  बनती हो, 
तलवार उठानी पड़ती है॥


हैं शस्त्र-धनी  हम भारतीय, 
तुमने जग को यह बता दिया।
पर शान्ति-अहिंसा भी प्यारी, 
ये ताशकन्द में दिखा दिया।।


निज जीवन का उत्सर्ग किया,
सुख-शान्ति मही पर लाने को।
दानव  को  मानवता  देने, 
दुश्मन को  मित्र  बनाने  को॥


तेरी निर्मल ज्योति से ज्योतित, 
भारत के होवें नर-नारी।
तेरे  चरणों में नतमस्तक, 
होती है नित वसुधा सारी॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं