सिसकता मानव
काव्य साहित्य | कविता अनिल खन्ना1 Aug 2019
मैं बरसों से सोया नहीं हूँ,
सपनों से डरने लगा हूँ।
हर बार
मज़हब, नफ़रत, जातिवाद और हुकूमत
के दरिंदे आकर मुझे डराते हैं,
हथियारों से मेरा जिस्म
छलनी कर देते हैं,
मैं ख़ून के दरिया में डूबने लगता हूँ,
झटके से आँख खोल देता हूँ।
मैं बरसों से बोला नहीं हूँ,
ज़ुबान है पर ख़ामोश हूँ।
दरिंदे मेरी आवाज़ पर
पहरा लगा देते हैं,
उसे दबा देते हैं।
मेरी चीखें घायल हो गई हैं,
महज़ एक अनावश्यक शोर
बन कर रह गईं हैं।
मैं बरसों से रोया नहीं हूँ
अकेले सिसकता रहता हूँ।
मेरे आँसू खो गए हैं,
दर्द की गहराई में उतर गए हैं।
बाहर आकर भी क्या करेंगे?
दरिंदों के दिल क्या कभी पिघलेंगे?
रुप बदल-बदल कर
हर दौर में
दरिंदे आते हैं, ज़ुल्म ढाते हैं,
दहशत फैला कर चले जाते हैं।
मैं सो नहीं पाता,
बोल नहीं पाता,
रो नहीं पाता!
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