तेज़ाब प्रेम
काव्य साहित्य | कविता शिवानी ‘शान्तिनिकेतन’1 Nov 2019
तुम्हारे प्रेम के दावे
इतनी जल्द खोखले हो गए
कि मेरी अस्वीकृति तुम्हें सहन न हुई
क्षणभर भी तुम्हारे हाथ न काँपे
मेरी चटकती देह को जलाते हुए
तुम्हारे तेज़ाब प्रेम ने जला दिया
चेहरे के साथ मेरी अन्तरात्मा को भी
शरीर कि जलन को कम पड़ गयी
पर आत्मा कि राख आज भी समेट रही हूँ
क्या यही तुम्हारा प्रेम था
नहीं! नहीं!
प्रेम इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है
ये तो तुम्हारा अहंकार था कि
मेरी चीखों को तुम
अपनी मर्दानगी की जीत समझते रहे
तुम्हें तो लगाव था ही नहीं
तुम्हें तो भोगना था शरीर
जिसे तुम जैसे जानवर
मात्र उपभोग कि वस्तु समझते हैं
लेशमात्र भी तुम्हारा अहम ना डगमगाया
मेरे अस्तित्व को छिन्न भिन्न करते हुए
वर्षों बाद आज भी मैं
हर दिन जीती और मरती हूँ
अपने गुनाहों के दाग़ तो चिपका दिए
मेरे बदन पर
और समाज ने तुम्हें स्वीकार लिया
नादान समझकर
बेगुनाह होते हुए भी
मेरे दाग़ हमेशा मेरे ही
गुनाहगार होने कि चुगली करेंगे
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