तिज्जो मौसी
काव्य साहित्य | कविता निशा भोसले8 Jan 2019
बचपन में गाँव में
घर आती थी काम करने
तिज्जो मौसी
माँजती थी बर्तन
धोती थी कपड़े
लगाती थी झाड़ू-पोछा
और भी बहुत सारे काम
बिना कहे ही
अपने घर की तरह
करती थी वह प्यार मुझे
अपने बच्चे की तरह
नहीं थे उसके अपने बच्चे
मुझे ही समझती थी
वह अपना बच्चा
याद आता है मुझे
आज भी उसका चेहरा
वह साँवला सा गठिला बदन
शरीर में होती थी ढेर सारी फूर्ति
होंठों पर खिली होती थी हँसी
करती थी प्यार मुझे गोद में लेकर
चूमती थी मेरे गालों को
सँवारती थी मेरे घुंघराले बालों को
गाती थी लोरियाँ
घुमाती थी मुझे गाँव की पगडंडियों पर
कभी तालाब के किनारे
और कभी खेत-खलिहानों में
आज बरसों बाद
मैं गाँव आई हूँ
पूछती हूँ तिज्जो मौसी के बारे में
बताते है गाँव के असलम चाचा
पिछले बरस पड़ा था गाँव में भीषण अकाल
तिज्जो मौसी
चली गई गाँव छोड़कर/शहर
फिर लौटकर नहीं आई्र
खो गई तिज्जो मौसी
शहर की भीड़ में
तिज्जो मौसी मेरी कोई नहीं थी
लेकिन तिज्जो मौसी थी
मेरी सबसे अपने सबसे प्रिय माँ की तरह।
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