उड़ान
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आस्था नवल9 Apr 2012
कुछ नया नहीं यह
कुछ भी नवीन नहीं
पर फ़िर भी सभी से कहना चाहती हूँ
बताना चाहती हूँ अपनी कल्पना की उड़ान
जताना चाहती हूँ कि मैं भी सपने देखती हूँ।
मैं जीना चाहती हूँ पर इस समाज में नहीं
मैं उड़ना चाहती हूँ पर इस छत के नीचे नहीं
मै बहना चाहती हूँ पर इस नदी में नहीं
मै लिखना चाहती हूँ पर इस छोटे कागज़ पर नहीं
क्योंकि
जीना है मुझे पूरे संसार में
उड़ना है मुझे विस्तृत आकाश में
बहना है मुझे लहरों के साथ समुद्र में
लिखना है मुझे जीवन के लम्बे पृष्ठों पर।
इस संकुचित, घबराहट और बंधन से दूर
मैं चाहती हूँ विशाल विस्तृत खुला संसार
जो दूर हो हर बनावट
हर कड़वाहट से
नि:स्वार्थ हो जहाँ हर कोई
आत्मा की सुंदरता मायने रखती हो जहाँ
हर छोटी बात से मुक्त हो मेरा जहान
जो केवल एक या दो का ना हो
हो सबका, हम सबका।
हाँ मैं जानती हूँ कि कुछ भी
नया नहीं कह दिया मैंने
पर फ़िर भी कहना चाहती थी
अपने सपनों की दास्ताँ
अपनी नन्ही अभिलाषाओं का कारवाँ
लोग कहते हैं जो कभी न होगा पूरा
पर संसार यह न समझे
कि छोड़ दूँगी इसे मैं अधूरा
और न देखूँगी कोई सपना दूजा
कल्पना की उड़ान में मैं उड़ती ही रहूँगी
आशा की नदी सदा बहती ही रहेगी
इन सपनों को सच्चा रूप देकर ही दम भरूँगी
दिखलाऊँगी सबको
कि सपने सदा झूठे नहीं होते।
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