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उम्मीद (शिशपाल चिनियां ’शशि’)

ज़माने के तानों से तंग हो
वो अभी थक के रुका था।
कहानी उस वक़्त पूरी हुई
जब वो हताश हो चुका था।


अपनी दुनिया से टूटा
वो ख़ुद बिक चुका था।
थार में खडे़ हिरण सा
ख़ुद से झिझक चुका था।


कभी हरा - भरा  खेत था
आज बंजर बन चुका था।
अपना ही दिल चीर लीया
वो अब ख़ंजर बन चुका था।


ज़माने की ठोकर खाकर
कुछ उसने सिखा ज़रूर था।
चिथड़ा बन गया अब वो
जो कभी साबुत गरूर था।


आईने की ज़रूरत थी
अहसास ही नहीं हुआ।
क्यों कि ये ज़माना था
जो अट्टाहास कर चुका था।


धत् तेरी कहने वालो सुनो
कुछ अलग उस की जंग है।
गिरगिट बन गए आप भी
अब देखो उसके कितने रंग है।


बिखरे ही सही वो तन्हा
अपने हालात सँभालेगा।
क़िस्मत उसके बस की नहीं
ख़ुद को नये साँचे में ढालेगा।


बो बदसूरत इंसान मैं हूँ
वो बदलने वाला इंसान मैं हूँ।
चिड़िया की तरह सीधा नहीं
बया सा उल्टा लटक चुका हूँ।


ख़ुद की उम्मीदें नहीं टूटीं
कितनी आशाएँ जागृत हैं
वो बन नीड़ मेरा तुफ़ानों का
मुझे हौसला पहाड़ सा दे चुका है।


शिशपाल चिनिंया "शशि"

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