उस दिन
काव्य साहित्य | कविता साधना सिंह9 Feb 2017
बड़े ग़ौर से आज
मैंने तुम्हारी आँखों को देखा था,
आकाश के विस्तार सा
मेरा सब..
अपने आग़ोश मे रखने के लिये -
जैसे वचनबद्ध हो।
मेरी आँखें झुक गयीं,
मैं इस विस्तार का
आख़िरी सिरा छूने को बेताब
अपनी हद ढूँढने का प्रयास करती
तरह तरह के क़यास लगाने लगी…
पर सब मृगमरीचिका ही थीं
तुम्हारी कही बातों से इतर
तुम्हारा सत्य खोजने को आतुर –
मेरा कमज़ोर अविश्वास…
हमेशा परास्त होता रहा
और मैं विजयी।
जैसे तुमने अनन्त युगों से
मेरे गिर्द अपने प्रेम की
लक्ष्मण रेखा खींच रखी हो
और मैं हर जन्म उसी दायरे में -
अपना सर्वस्व समर्पित करती हूँ ...
मै अतृप्त ही तृप्त रहती हूँ ये सोच
कि तुम्हारा कोई सिरा...
भले ही मेरे पँहुच से परे हो
पर मुझसे अलग नहीं
हर कोना मुझ पर
आकर अपना अर्थ पाता है
और ये सोच मेरा रोम रोम
गर्वान्वित हो उठता है
तुम्हारे सामने मेरी झुकी आँखें
मेरे प्रेम की विजय की प्रतीक हैं तो जाओ..
फैलाओ अपना विस्तार आकाश के उस पार
मेरा प्रेम तुम्हारी धमनियों में प्रवाहित हो
तुम्हें संबल ही देगी....
और वही मेरे प्रेम की जीत होगी॥
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