वे लोग
काव्य साहित्य | कविता लक्ष्मी शंकर वाजपेयी3 Dec 2008
वे लोग
डिबिया में भरकर पिसी हुई चीनी
तलाशते थे चींटियों के ठिकाने
छतों पर बिखेरते थे बाजरा के दाने
कि आकर चुगें चिड़ियाँ
वे घर के बाहर बनवाते थे
पानी की हौदी
कि आते जाते प्यासे जानवर
पी सकें पानी
भोजन प्रारंभ करने से पूर्व,
वे निकालते थे गाय तथा अन्य प्राणियों का हिस्सा
सूर्यास्त के बाद, वे नहीं तोड़ने देते थे
पेड़ से एक पत्ती तक
कि ख़लल न पड़ जाए
सोये हुए पेड़ों की नींद में
वे अपनी तरफ़ से शुरू कर देते थे बात
अजनबी से पूछ लेते थे उसका परिचय
ज़रूरतमन्द की करते थे
दिल खोलकर मदद
कोई पूछे किसी का मकान
तो ख़ुद छोड़कर आते थे उस मकान तक
कोई भूला भटका अनजान मुसाफ़िर
आ जाए रातबिरात
तो करते थे भोजन और विश्राम की व्यवस्था
सँभव है, अभी भी दूरदराज किसी गाँव या कस्बे में
बचे हों उनकी प्रजाति के कुछ लोग
काश ऐसे लोगों का
बनवाया जा सकता एक म्यूजियम
ताकि आने वाली पीढ़ियों के लोग
जान सकते
कि जीने का एक अन्दाज़ ये भी था
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