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विजय कुमार – मुक्तक – 001

मुझे अच्छा लगता है

 

दिल की गहराइयों में जी भर के डूबना
मुझे अच्छा लगता है l
लोगों के तानों में अपनी धुन बुनना
मुझे अच्छा लगता है l
कलेजा मेरा बार-बार उबलता है
तड़पता है क्या करूँ,
अपने सपनों को हक़ीक़त में बदल देना
मुझे अच्छा लगता है।

♦ ♦ ♦

चलो एक नया एहसास जगाते हैं

 

चलो एक नया एहसास जगाते हैं।
बिछड़े दिलों को पास बुलाते हैं।
यह सुबह और शाम का संगम है,
चलो आज नैनों में बस जाते हैं।

♦ ♦ ♦

मुक़ाम 
 
बुरे हालातों में जीना
मेरी आदत-सी हो गई।
पता ही नहीं चला मुझे
कब मुक़ाम से लगन हो गई।
ज़माना कहता है मुझसे
तेरा कभी कुछ हो नहीं सकता,
मैं कैसे कहूँ अब उनसे
मुझे सफ़र से मोहब्बत हो गई।

♦ ♦ ♦

आँसू बहाता गया
 
मैं यहाँ क़ीमती मौक़े गँवाता गया।
हँसी महफ़िलों में उन्हें लुटाता गया।
और जब ढल गई जवानी मेरी,
तो बस आँख से आँसू बहाता गया।

♦ ♦ ♦

नज़र
 
हर फूल की कली
कली नहीं होती।
हर दिल की दिलरुबा
दिलरुबा नहीं होती।
यूँ कलेजा निकाल कर
ना रख देना मेरे दोस्त,
यहाँ हर झुकी नज़र
अपनी नहीं होती।

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