विनाश- प्रकृति से छेड़
काव्य साहित्य | कविता आभा नेगी1 Feb 2020 (अंक: 149, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
प्राण उड़े पखेरू के
मिला ना जब थल पर पानी
गाय माता रंभा रही
बरखा हरियाली को तरसा रही
जानवरों का जंगल में उत्पात
सूखा हर जगह लगाए घात
धरती के सीने में दरार
कैसे उपजे अब अनाज
दोषी कौन?
दोषी कौन?
सब कसूरवार हैं
सब ने साधा स्वार्थ अपना
अकेला भोगी कौन?
अकेला भोगी कौन?
विकास की राह पर चले
प्रकृति के साथ छेड़ करें
जो जस था
अब तस ना रहा
पहले जो सुंदर था
अब भयावह वह बना
सकल पृथ्वी में हाहाकार है
कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ है
कहीं ज़मीन फटी
तो कहीं बिजली गिरी
हर जगह शोक है
प्रकृति का कोप है
पहले जो प्राकृतिक थी
अब विनाशमय है
पहले जो हर्षित था
अब दुखमय है
अभी ना रुका तो
कब रुकेगा?
न जंगल बचेगा
न धरती हमारी
नष्ट हो जाएगी
यह दुनिया सारी
पर आशा है कहीं
कि मानव रुकेगा
प्रकृति फिर हँसेगी
हरियाली फिर सँवरेगी
वर्षा फिर होगी फिर धरती लहलहाएगी
और फिर कहलाएगा
देश हमारा
सोने की चिड़िया, सोने की चिड़िया
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