अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
शायरी | ग़ज़ल अब्दुल हमीद ‘अदम‘28 Apr 2007
अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
दिल की आहट से तेरी आवाज़ आती है मुझे
या समात का भरम है या किसी नग़में की गूँज
एक पहचानी हई आवाज़ आती है मुझे
समात का=सुनने का
किस ने खोला है हवा में ग़ेसूओं को नाज़ से
नरम रो बरसात की आवाज़ आती है मुझे
उसकी नाज़ुक उँगलियों को देख कर अकसर “अदम”
एक हल्की सी सदा-ए-साज़ आती है मुझे
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