अनदेखे ख़्वाब
काव्य साहित्य | कविता अंकिता परखड15 Mar 2024 (अंक: 249, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
पर्दों के पीछे छिपे थे वो नज़ारे
कहाँ थी मैं और कहाँ मेरे सपने
लगा बस पास ही हैं पहुँचने वाली हूँ
कभी पास तो कभी दूर
कभी छू पाई तो कभी देख न पाई
हर दिन निकला एक गहरी रात
लगा कभी तो बत्ती जलेगी
और महसूस कर पाऊँगी
उन सपनों को
छूकर, पकड़कर, उठाकर, गले लगाकर
लेकिन ज़माने को कुछ और ही मंज़ूर था
भटकती रही हर पल हर कोने
लगा सपने पूरे करने के लिए आग पर चलना पड़ेगा
और चली भी
एक दिन उसी आग ने मुझे अँधेरे से बाहर निकला
रोशनी दिखी, चमक दिखी
हर क़दम मदद का सहारा मिला
सपनों का हाथ थामे क़रीब पहुँचती गई
और लगा ये तो कितना आसान था
मेरे सपनों में ही मेरे जवाब थे
आँखें खोली, मन के अंदर झाँका
अपने सपनों को जिया
और यही थी मेरी अनदेखे ख्वाबों की कहानी
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