अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अपना घर, पराया घर

 

माँ कह रही थीं, “एक दिन सारी बेटियों को अपने घर जाना ही पड़ता है।”

“तो ये घर किसका है?” मैंने माँ से पूछा . . . 

मैं अब छोटी बच्ची नहीं थी, ये मेरा सोलहवाँ जन्मदिन था। बचपन से ही ससुराल की बातें सुनकर बड़ी हुई हूँ मैं। नानी के घर छुट्टियों पर जाने का मज़ा ही अलग होता है, लेकिन जब वही नानी माँ थोड़ी-सी गड़बड़ होते ही सास और ससुराल की बातों से डराए तो पूरा मज़ा ही ख़राब हो जाता है। मेरा बचपन बहुत सुंदर था लेकिन इन बातों से कौन-सी लड़की बच पाई है आज तक, जो मैं कुछ ख़ास होती। ‘मुझे मेरे घर जाना है’ ये बात शायद मुझे पैदा होते ही बता दी गई थी। पर मन में कुछ सवाल थे, जैसे, अगर सास इतनी ही बुरी होती है की ग़लती होते ही डाँटे तो मुझे ऐसी सास के पास भेजना ही क्यों चाहते हैं? और मैं तो ससुराल में नई–नई जाऊँगी तो वो घर मेरा कैसे हुआ? पर ना तो मैं इन सवालों के जवाब जानती थी और ना पूछना मुझे कभी आसान लगा। 

दिल में इतना कुछ था कि मेरे जन्मदिन पर भी जब मेरी ही माँ मुझे पराया साबित कर रही थीं, तब मैंने पूछ ही लिया कि ये घर आख़िर है किसका? हालाँकि जवाब मुझे पता था—आख़िर बेटियाँ पराई होती हैं बेटे नहीं, और भैया तो हमेशा से ही माँ के लाड़ले रहे हैं! 

 . . . माँ ने आँखों में चमक और चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान लिए कहा, “ये घर उसका है जो यहाँ दुलहन बनकर आएगी।” मैं हैरान थी, जिसका अभी तक नाम भी नहीं पता था उसके आते ही सब कुछ उस पर लुटाने का बेसब्री से इंतेज़ार कर रही थी मेरी माँ। 

क्या सास सच में बुरी होती है? आख़िर कौन-सा घर सच में अपना होता है, कौन-सा पराया?

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं