अरमानों की यात्रा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सीमा शाहजी1 Jan 2025 (अंक: 268, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
लिखती,
इसलिए नहीं, कि
केवल पढ़ो
लिखती,
इसलिए भी कि
समझो
तुम्हारी ज़िंदगी ही
लिखकर,
थमा देती हूँ,
तुम्हारे ही हाथों में,
ताकि बात कर सको
तुम, अपनी ही,
ज़िन्दगी से . . .
जब जुगनू भी
सो जाते हैं
नया सूरज,
अभ्यास कर रहा
होता है,
जब अकेला शरीर
सपने देखना
बंद कर देता है
तब मिलो ख़ुद से
और देखो,
सुबह का एक सपना
जो, सच जैसा
होता है
अरमानों को
मरा हुआ
मान लिया
तुमने
पर,
अरमान मरते हैं
कभी भला।
उनमें
आत्मा नहीं होती
शायद,
इसलिए, मरते नहीं
कभी,
तुम देखो तो ज़रा
मर गए,
सभी अरमान
तुम्हारे
या ज़िन्दा हैं,
शायद वे घायल हैं
बचा सको तो
बचा लो उन्हें
आगे के सफ़र में ही
सही
वे बहला दे
मन को . . .
सृष्टि की रीत है,
कि अंत में
दूसरों की तरह
तुम्हारा शरीर भी
एक माचिस की
तीली से
भस्म हो जाएगा . . .
लेकिन
अरमानों की यात्रा
चलती रहेगी
चलती ही रहेगी . . .!!
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