असलियत मेरी पूरी, काश! तुम समझ पाते
शायरी | ग़ज़ल संजीव प्रभाकर15 Apr 2024 (अंक: 251, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
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असलियत मेरी पूरी, काश! तुम समझ पाते,
यार! मेरी मज़बूरी, काश! तुम समझ पाते!
मुझ पे हक़ जताने की, खामुशी मेरी तुमको,
दे रही थी मंजूरी, काश! तुम समझ पाते!
डबडबाई आँखों ने, थरथराये होठों से,
बात जो न की पूरी, काश! तुम समझ पाते!
वज़्ह क्या रही होगी, लाख कोशिशों पर भी,
ज्यों की त्यों रही दूरी, काश! तुम समझ पाते!
और कुछ नहीं देती, ज़िस्म तोड़ देती है,
आख़िरश ये मजदूरी, काश! तुम समझ पाते!
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