बयान
कथा साहित्य | कहानी सुशांत सुप्रिय2 Jun 2016
योर ऑनर, इससे पहले कि आप इस केस में अपना फ़ैसला सुनाएँ, मैं कुछ कहना चाहता हूँ।
जिस लड़की मिनी ने आत्महत्या की है, मैं उसका भाई हूँ। पर जज साहब, मैं भाई नहीं, कसाई हूँ। मैंने उसकी आत्मा पर बड़े अत्याचार किए हैं।
जब मिनी छोटी थी तभी एक सड़क हादसे में माँ-बाबूजी, दोनों चल बसे। मिनी को पालने की ज़िम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी।
मिनी बड़ी प्यारी लड़की थी। जीवन से भरी हुई। वह चिड़िया की तरह उड़ना चाहती थी। नदी की तरह बहना चाहती थी। उसके मन में बहुत-सी इच्छाएँ थीं। वह फूल में सुगंध बनना चाहती थी। वह इंद्रधनुष में रंग बनना चाहती थी। वह हिरण में कस्तूरी बनना चाहती थी। वह मौसम में वसंत बनना चाहती थी। वह जुगनू में चमक बनना चाहती थी। वह मेमने में ललक बनना चाहती थी। वह जल में तरंग बनना चाहती थी। वह जीवन में उमंग बनना चाहती थी। वह समुद्र में मछली बनना चाहती थी। वह मछली बनकर समुद्र की गहराइयों में, चिड़िया बनकर आकाश की ऊँचाइयों में खो जाना चाहती थी। उसके लिए खो जाना ही घर आना था।
जज साहब, यदि मैं बहक गया हूँ तो मुझे माफ़ कर दीजिए। पर मिनी ऐसी ही थी। वह पहले कविताएँ लिखती थी। वह चित्र भी बनाती थी। बहुत सुंदर। उन दिनों वह बहुत ख़ुश रहती थी। फूल-सी खिली हुई। वह एक महान् कवि, कथाकार या चित्रकार बन सकती थी। पर मैंने उसकी कविताओं और कहानियों को कभी नहीं सराहा। मैंने कभी प्रशंसा नहीं की उसकी पेंटिंग्स की। आए दिन मैं उसे झिड़क देता।
उसे डाँटता-फटकारता। उसकी कविताओं-कहानियों को फाड़कर कूड़े में फेंक देता। उसकी पेंटिंग्स को जला देता। मैं नहीं चाहता था कि वह कविताएँ या कहानियाँ लिखे या पेंटिंग्स बनाए। मैं नहीं चाहता था कि वह अपने मन की सुने। मैं नहीं चाहता था कि वह आकाश जितना फैले, समुद्र भर गहराए, फेनिल पहाड़ी नदी-सा बह निकले। मैं चाहता था कि वह अपना सारा समय बर्तन-चौके, झाड़ू-पोंछे, कपड़े धोने, स्वेटर बुनने और अचार डालना सीखने में लगाए। मेरे ज़हन में लड़कियों के लिए एक निश्चित जीवन-शैली थी। एक साँचा था और उसे उस में फ़िट होना था। उसे जीवन भर किसी-न-किसी पुरुष पर आश्रित रहना था। इस सब का परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे उसने कविताएँ और कहानियाँ लिखनी बंद कर दीं। पेंटिंग्स बनानी बंद कर दी और भीतर से बुझ गई वह।
मैंने उस पर इतनी पाबंदियाँ लगा दीं कि देखते-ही-देखते वह मुरझा गई। वह लड़कों के साथ नहीं खेल सकती थी। अकेले बाज़ार नहीं जा सकती थी। जीन्स और टी-शर्ट नहीं पहन सकती थी। खुल कर नहीं हँस सकती थी। वह छोटी-छोटी ख़ुशियों के लिए तरस गई। कॉलेज में बीच में ही मैंने उसकी पढ़ाई छुड़वा दी। मेरा मानना था कि लड़की को पढ़ाने-लिखाने का कोई फ़ायदा नहीं होता। उसे तो शादी करके ससुराल ही जाना होता है।
मिनी को प्रकृति से बहुत प्यार था। सिंदूरी सुबहें, नारंगी शामें, हहराता समुद्र और गगनचुम्बी पर्वत-श्रृंखलाएँ उसे उल्लास और उमंग से भर देती थीं। घनघोर घटाएँ देख कर उसका मन प्रसन्न हो जाता। वह बारिश की एक-एक बूँद को जीना चाहती। पर ऐसे समय में मैं उसे ज़बर्दस्ती रसोई में पकौड़े बनाने के लिए भेज देता था।
जज साहब, मेरी बहन अपना जीवन अपनी शर्तों पर नहीं जी सकी। हमारे देश में स्त्री को क्या करना है यह उसका बाप, भाई, पति या बेटा ही तय करते हैं।
मिनी की पढ़ाई बीच में ही रोक देने की एक वज़ह और भी थी। उसके पुरुष सहपाठी उससे मिलने घर आने लगे थे। हालाँकि वे पढ़ाई के बहाने ही मिनी से मिलने आते - शिष्ट, सभ्य और भीरु-से, दोनों हाथ जोड़े मुझे "नमस्ते भैया" कहते हुए। वे सभी विनम्र, विनीत और संस्कारवान-से थे। पर मुझे यह बिल्कुल पसंद नहीं था कि लड़के मिनी से घर आ कर मिलें-जुलें। उनमें से एक लड़के से उसकी दोस्ती ज़्यादा गहरी लगने लगी थी। शायद दोनों एक-दूसरे को चाहते भी थे। किंतु वह किसी दूसरी जाति का था। मैं यह कैसे गवारा करता। इसलिए मिनी को अपनी पढ़ाई का बलिदान देना पड़ा।
बचपन में माँ-बाबूजी हम दोनों भाई-बहन को ढेर सारी कहानियाँ सुनाते थे। उनमें सुंदर राजकुमार घोड़े पर सवार हो कर चाँदनी रातों में आते थे और मुसीबत में फँसी राजकुमारियों को बचाते थे और उनसे शादी करके उन्हें अपने साथ ले जाते थे। पर आम जीवन में ऐसा नहीं था। धीरे-धीरे बहन जान गई कि उसके लिए कोई सपनों का राजकुमार नहीं आएगा, कोई शहज़ादा आ कर उसे इस नियति से नहीं बचाएगा।
अगले ही साल मैंने मिनी की शादी एक विधुर से कर दी। मुझे कोई दहेज नहीं देना पड़ा। पर जज साहब, अपनी ख़ुशी, अपने आराम के लिए मैंने उसकी ज़िंदगी बर्बाद कर दी। शादी के कुछ दिनों बाद उसने मुझे फ़ोन करके बताया कि उसका पति शराबी था और पी कर उसे पीटता था। पर मैंने उसकी बातों को ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया।
कुछ महीनों बाद एक शाम किसी ने मेरे मकान का दरवाज़ा खटखटाया। मैंने दरवाज़ा खोला। सामने मिनी खड़ी थी। पर मुझे उसे पहचानने के लिए प्रयास करना पड़ा। उसके चेहरे पर अपनों के पैरों के निशान थे। कुछ ही महीनों में वह कई साल बूढ़ी हो गई थी। उसकी आँखें जो पहले कभी सुबह के रंग की होती थीं, अब पूरी तरह रात के रंग की हो गई थीं। उसके चेहरे पर पीड़ा की स्थायी लकीरों ने अपना घर बना लिया था। उसकी आँखें गड्ढों में धँस गई थीं। वह बुरी तरह हाँफ रही थी। बोलने के लिए भी उसे कोशिश करनी पड़ रही थी। फिर आत्मा की अतल गहराइयों से उसने मुझे पुकारा --
"भैया, मुझे बचा लो।" उस आवाज़ में कितनी याचना थी, कितनी गिड़गिड़ाहट थी। वह रात से दिन का उजाला माँग रही थी। पर मैं कसाई बना रहा। क्या कसाई कभी बकरे की याचना सुनता है? "अब वही तुम्हारा घर है," मैंने ख़ुद को कहते सुना।
वह कुछ पल मुझे नि:शब्द देखती रही। उसकी निगाह में कई नदियों के सूख जाने का दर्द था। उसके लिए सारे सूरज डूब गए थे। सारे देवी-देवता मर गए थे। उसके भीतर कई आँधियाँ बंद पड़ी थीं। उसके भीतर क़ब्र का अँधेरा भरा हुआ था। बाहर ऊपर एक भारी आकाश था। नीचे घनी बारिश में भीगती-ठिठुरती ठंडी हवा थी।
उसी रात मैं उसे ज़बर्दस्ती घसीट कर ले गया और उसके पति के घर छोड़ आया। वह एक नर्क से दूसरे नर्क में ले जाई जा रही थी। जब मैं लौटने लगा तो वह फफक-फफक कर रोने लगी। सारे समुद्र का खारापन उसकी आँखों से निकले आँसुओं में घुल गया था। जज साहब, उस रात वह ऐसे रोई थी जैसे उजाला रोता है अँधेरे से पहले।
उस रात सारी रात बिजली कड़कती रही और बादल गरजते रहे। सारी रात मूसलाधार बारिश होती रही। बीच-बीच में भयंकर गर्जन के साथ कहीं बिजली गिरती। वह सदी का सबसे ख़राब मौसम रहा होगा।
अगली सुबह मुझे ख़बर मिली कि मिनी ने रात में ही आत्महत्या कर ली थी। वह अपने धुएँ के रंग की साड़ी से गले में फंदा डाल कर कमरे के सीलिंग-फ़ैन से लटक गई थी। जब मैं वहाँ पहुँचा, उसका शरीर अकड़ कर नीला पड़ चुका था। जज साहब पहली बार मैंने अपने सीने पर अपने पापों का बोझ महसूस किया। वह शायद मेरे जीवन का सबसे लम्बा और त्रासद दिन रहा होगा।
जज साहब, पहले मैं ऐसा हृदयहीन नहीं था। मुझे भी प्रकृति से प्यार था। मैं भी कविताएँ और कहानियाँ पढ़ता था। मुझे भी ख़ूबसूरत पेंटिंग्स अच्छी लगती थीं। घनघोर घटाएँ मुझे भी लुभाती थीं। इन्द्रधनुष, तितलियाँ और जुगनू मुझे भी आकर्षित करते थे। मुझ में भी स्पंदन होता था। मेरा दिल भी धड़कता था। सावन में नाचते मोर को देखकर मैं भी किलकता था। पर सड़क हादसे में माँ-बाबूजी की मौत के बाद बहन को पालने और घर चलाने की सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी। सिर पर अचानक आ पड़े नून-तेल-लकड़ी के बोझ ने मेरी दुनिया ही बदल दी। मैं इस बोझ तले दबने लगा। धीरे-धीरे मैं प्रकृति और उसकी सुंदरता से कटता चला गया। और अंत में मैं पत्थर-दिल बन गया। मैं जैसे बहन से अपने खोए हुए जीवन का बदला लेने लगा। मेरा अपना जीवन कुंठित हो गया था और बदले में मैं उसका जीवन भी कुंठित करता चला गया। पर मुझे क्या पता था जज साहब कि इसका परिणाम इतना भयावह होगा।
योर ऑनर, मिनी के सामानों में से मुझे उसकी तीन कहानियाँ मिलीं जो किसी तरह बची रह गई थीं और जिन्हें मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ। इन कहानियों से पता चलता है कि वह कितनी संवेदनशील थी और किस दारुण दौर से गुज़र रही थी।
'पिंजरा' कहानी में उसने नारी के जीवन की तुलना पिंजरे में क़ैद उस पक्षी से की है जो चाह कर भी नहीं उड़ सकता। वह पुरुष-मानसिकता के पिंजरे से टकरा-टकरा कर सिर धुनने के लिए अभिशप्त है।
'डोर-मैट' कहानी की नायिका परिवार और समाज में पुरुषों के द्वारा डोर-मैट की तरह इस्तेमाल की जाती है। पुरुष नारी को डोर-मैट बना कर उससे अपने जूते पोंछ कर आगे बढ़ जाते हैं।
जज साहब, इस तीसरी कहानी का नाम है 'बोन्ज़ाई'। बोन्ज़ाई एक ख़ास तरीक़ा है जिसके द्वारा आप एक वट-वृक्ष को भी गमले में लगा सकते हैं। नारी में वट-वृक्ष होने की क्षमता है। पर पुरुष उसे गमले में लगे बोन्ज़ाई-पौधे तक सीमित कर के रखना चाहता है। इमारत से भी ऊँचे उगने वाले पेड़ को वह गमले तक सीमित कर देता है। उसके क्षितिज को वह काट-छाँट देता है। नारी की सम्भावनाओं के आकाश को वह छोटा कर देता है। उसकी क्षमता को वह कुंठित कर देता है। गमले में वट-वृक्ष कैसे पनपेगा ? कैसे उगेगा ? कैसे फलेगा-फूलेगा, फैलेगा ? यदि उसे अवसर दिया जाए, तो नारी धरती में उगा छायादार वट-वृक्ष बन कर ख़ूब फैल सकती है। पर पुरुष-प्रधान समाज उसे गमले में लगा बौना वट-वृक्ष, एक बोन्ज़ाई पौधा बनाकर रखना चाहता है। इस तरह नारी एक बोन्ज़ाई-जीवन, एक आश्रित जीवन जीने के लिए अभिशप्त है।
जज साहब, मैं मिनी की लिखी ये तीनों कहानियाँ अदालत के सामने रखता हूँ। सुलगते अक्षर इस तरह लिखते हैं। उदास रात इस तरह लिखती है। बेबस हवा इस तरह लिखती है।
जज साहब, अपनी नज़रों में गिर गए आदमी से ज़्यादा गिरा और कोई नहीं होता। अब मुझे रुलाई की तरह उसकी याद आती है जो नहीं रही इस भरे शहर में। कई रातों से मैं सो नहीं पाया हूँ। कुछ पल के लिए आँख लग जाती है तो मेरे सपने मरे हुए लोगों से भरे होते हैं। आईने में देखता हूँ तो मेरी छवि की जगह वहाँ से मेरे मरे हुए उदास माता-पिता झाँक रहे होते हैं। वे मुझसे पूछते हैं - "तूने अपनी बहन के साथ ऐसा क्यों किया? " और मैं उनसे नज़रें नहीं मिला पाता हूँ।
जज साहब, मेरे आँसुओं पर न जाइए। शायद यह मेरे मृत माता-पिता के आँसू हैं, जो अपनी बेटी की क्रूर नियति देख कर बह रहे हैं मुझ में से। कभी-कभी पूर्वजों के आँसू भी बहते हैं हम में से ही।
जज साहब, मेरी बहन इस देश में एक लड़की के रूप में पैदा हुई थी। उसका जीवन तीखे कोनों से भरा पड़ा था। वह उम्र भर उनसे टकराती रही, छिलती रही। वह एक जीनियस थी। उसमें अमृता प्रीतम बनने की क्षमता थी। अमृता शेरगिल बनने की प्रतिभा थी। पर उसका इंद्रधनुष आजीवन कीचड़ में सना पड़ा रहा। मैंने उसके भीतर की आग को बुझा दिया। जब वह उड़ना चाहती थी, मैंने उसके पंखों में कँटीले तार बाँध दिए। जब वह सपने देखना चाहती थी, मैंने उसकी आँखों में ढेर सारी मिर्च झोंक दी। मैंने उसकी प्रतिभा का दम घोंट दिया। मैंने उसकी कला की हत्या कर दी। मैं कसाई हूँ। हत्यारा हूँ। मुझे कठोर-से-कठोर सज़ा दी जाए, जज साहब।
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