इधर से ही
कथा साहित्य | कहानी सुशांत सुप्रिय22 Jul 2014
लुटेरे इधर से ही गए हैं
यहाँ प्रकृति की सारी ख़ुशबू
लुट गई है
भ्रष्ट लोग इधर से ही गए हैं
यहाँ एक भोर के माथे पर
कालिख़ लगी हुई है
फ़रेबी इधर से ही गए हैं
यहाँ कुछ निष्कपट पल
ठग लिए गए हैं
हत्यारे इधर से ही गए हैं
यहाँ कुछ अबोध सपने
मार डाले गए हैं
हाँ, इधर से ही गुज़रा है
रोशनी का मुखौटा पहने
एक भयावह अँधेरा
कुछ मरी हुई तितलियाँ
कुछ टूटे हुए पंख
कुछ मुरझाए हुए फूल
कुछ झुलसे हुए वसंत
छटपटा रहे हैं यहीं
लेकिन सबसे डरावनी बात
यह है कि
यह जानने के बाद भी
कोई इस रास्ते पर
उनका पीछा नहीं कर रहा
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