किसान का हल
काव्य साहित्य | कविता सुशांत सुप्रिय22 Jul 2014
उसे देख कर
मेरा दिल पसीज जाता है
कई घंटे मिट्टी और
कंकड़-पत्थर से
जूझने के बाद
इस समय वह हाँफ़ता हुआ
ज़मीन पर वैसे ही पस्त पड़ा है
जैसे दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद
शाम को निढाल हो कर पसर जाते हैं
कामगार और मज़दूर
मैं उसे प्यार से देखता हूँ
और अचानक वह निस्तेज लोहा
मुझे लगने लगता है
किसी खिले हुए सुंदर फूल-सा
मुलायम और मासूम
उसके भीतर से झाँकने लगती हैं
पके हुए फ़सलों की बालियाँ
और उसके प्रति मेरा स्नेह
और भी बढ़ जाता है
मेहनत की धूल-मिट्टी से सनी हुई
उसकी धारदार देह
मुझे जीवन देती है
लेकिन उसकी पीड़ा
मुझे दोफाड़ कर देती है
उसे देखकर ही मैंने जाना
कभी-कभी ऐसा भी होता है
लोहा भी रोता है
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