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भाषा और भाषा की उत्पत्ति–एक झाँकी

भाषा एक प्राकृतिक वस्तु है जो मानव को ईश्वरीय वरदान के रूप में मिली हुई है। भाषा का निर्माण मनुष्य के मुख से स्वाभाविक रूप में निःसुत ध्वनियों के द्वारा होता है। भाषा का सामान्य ज्ञान इसके बोलने और सुनने वाले सभी को हो जाता है।

सामान्यतः व्यापक अर्थ में अभिव्यक्ति के साधनों को भाषा कहते हैं। इसमें संकेत, चिह्न, आंगिक चेष्टा को भी लिया जाता है और मनुष्येत्तर प्राणियों की भाषाओं को भी। प्राणिजगत में ध्वनि संकेतों से कम प्राय: सभी प्राणी लेते हैं। मनुष्येत्तर प्राणियों की भाषाओं पर सार्थक शोध हुए हैं। इन शोध तत्व विधायक साहित्यों ने ही ये निष्कर्ष दिए हैं कि “पशुओं के ध्वनिसंकेतों से विशाल शब्द भंडार बन सकते हैं।”1और आगे यह भी कहते है कि “पशुध्वनि से ही मनुष्य की भाषोत्पत्ति हुई है।” 2

“आत्मरक्षा, आहार, यूथसम्पर्क, मैथुनादि की आवश्यकताओं के लिए जैसे मनुष्य ध्वनिसंकेतों से काम लेते हैं, वैसे ही पशु भी”3। जैसे करुणा, शोक, उल्लास, भय को व्यक्त करने में मनुष्य की भाषा एक समान नहींं रहती, वैसे ही पशुओं की भी। संकुचित अर्थ में भाषा का अर्थ सिर्फ़ मनुष्य की भाषा है, वह भी वाचिक, वैखरी, मुखोच्चरित यानी अर्थवान ध्वनि संकेत और कुछ नहींं। भारत के प्राचीन भाषा विज्ञानी भी “मौखिक भाषा को उत्कृष्ट कहते थे, लिखित को निकृष्ट”4 आधुनिक भाषा विज्ञानी ब्लूमफील्ड भी “भाषा के लिखित रूप को भाषा नहींं मानते”5 संकुचित अर्थ में मनुष्य के उच्चारण अवयवों द्वारा समास उच्चरित ध्वनिसंकेत के लिए होता है जो अर्थवान होते हैं।

बाबूराम सक्सेना के अनुसार, “जिन ध्वनि चिह्नों द्वारा मानुष परस्पर विचार–विनिमय करता है उसकी समष्टि को भाषा कहते हैं।”6 इस परिभाषा में अतिव्याप्ति दोष है। ध्वनि चिह्नों में ताली बजाना, चुटकी बजाना, तार की ध्वनि, विपर्यस्त ध्वनिक्रम में नियोजित तरीक़े से हल्ला मचाना तथा और भी अन्य साधनों का उपयोग आ जाता है। लेकिन भाषा विज्ञान तो उच्चारण अवयवों से निस्सृत समाज स्वीकृत अर्थवान ध्वनि चिह्नों को ही सिर्फ़ भाषा कहता है। मंगलदेव शास्त्री ने उच्चारण अवयवों को ध्यान में रखते हुए कहा है “भाषा मनुष्यों की उस चेष्टा या व्यापार को कहते हैं जिससे मनुष्य अपने उच्चारणोपयोगी शरीरावयवों से उच्चारण किए गए वर्णात्मक या व्यक्त शब्दों के द्वारा अपने विचारों को प्रकट करते हैं।”7 भाषा यादृच्छिक ध्वनिसंकेत होती है और भाषा के ध्वनिसंकेत रूढ़ होते हैं। जैसे स्त्रुत्वा ने कहा है “A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which members of a social group co-operate and interact”8 विश्वकोष में भाषा का लक्षण ऐसा है– “Language may be defined as in arbitrary system of vocal symbols by means of which human beings as a member of social group and participants in culture interact and communicate”9

मेरियो पोई का कहना है कि “A system of communication by sound through the organs of speech and hearing among human being of certain group of community using vocal symbols possessing arbitrary conventional meanings।”10 चाम्सकी और गार्डिनर के अनुसार हम यह कह सकते हैं कि भाषा मुखोच्चरित, अर्थवान, यादृच्छिक रूढ ध्वनि संकेत की ऐसी व्यवस्था है जिसके सहारे लोग आपस में विचार विनिमय करते हैं।

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि भाषा एक पद्धति है, यानी एक सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना या संघटन है, जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया, आदि व्यवस्थिति रूप में आ सकते हैं।

भाषा संकेतात्कम है अर्थात् इसमे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं, उनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है। ये ध्वनियाँ संकेतात्मक या प्रतीकात्मक होती हैं।

भाषा वाचिक ध्वनि-संकेत है, अर्थात् मनुष्य अपनी वागिन्द्रिय की सहायता से संकेतों का उच्चारण करता है, वे ही भाषा के अंतर्गत आते हैं।

भाषा यादृच्छिक संकेत है। यादृच्छिक से तात्पर्य है—ऐच्छिक, अर्थात् किसी भी विशेष ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध नहींं होता। प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक ‘मान लिया जाता’ है। फिर वह उसी अर्थ के लिए रूढ़ हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि वह परम्परानुसार उसी अर्थ का वाचक हो जाता है। दूसरी भाषा में उस अर्थ का वाचक कोई दूसरा शब्द होगा।

भाषा की उत्पत्ति

भाषा कब बनी, कैसे बनी? इसका प्रारम्भिक स्वरूप क्या था? इसमें कब–कब, क्या-क्या परिवर्तन हुए और परिवर्तन का क्या कारण है? इस विषय में विद्वानों में विभिन्न मत है। अनेक वर्तमान लेखकों ने भाषा की उत्पत्ति के विभिन्न प्रसिद्ध मतों को चार वर्गों में बाँटा है। वे हैं:

1. परम्परागत-मत (Traditional)

इसके अंतर्गत भारत, मिस्र और यूनान आदि के विचारकों के मत हैं।

2. रहस्यवादी मत (Mystic)

3. अर्ध–वैज्ञानिक मत (Semi-Scientific)

4. मनोवैज्ञानिक मत (Psychological)

1. परम्परागत-मत

भारतीय सिद्धांत

आर्य विद्वान् दो प्रकार की वाक् मानते आये हैं, दैवी और मानुषी। दैवी वाक् मन्त्रमई है। दैवी इस लिए कि देवों द्वारा उच्चारित हुए। मानुशिवक अर्थात् मनुष्यों द्वारा व्यवहृत वाक्। इसमे पद लगभग वही हैं जो दैवीवाक् में थे, पर वाक्य–रचना और आनुपूर्वी के हेर-फेर के कारण यह एक नया रूप धारण करती है। मूल इसका दैवीवाक् ही है।

“वृहदाराणयक में लिखा है कि प्रजापति पुरुष से देवों की उत्पत्ति हुई।”11

मिश्री मत

“मिश्र के विद्वान् ‘पवित्र लेख’ को ‘न्द्वन्त्र’ अर्थात् (the speech of Gods) कहते थे।”12 ये पद वेदमंत्रस्थ ‘देवमन्द्रा’ का अपभ्रंश प्रतीत होते हैं।

यूनानी मत

यूनान के होमर का मत था, “The language of Gods and of men.”13

अर्थात्-देवों की भाषा और मनुष्यों की भाषा। होमर के पश्चात यूनानी लेखक हेरैक्लिटस का भाव भी द्रष्टव्य है—“Heraclitus (503 B.C.) held that words exist naturally . . . He said, to use any words except those supplied by nature for each thing, was not to speak, but only to make a noise।”14 अर्थात्-शब्द आकाश में स्वाभाविक हैं। मनुष्य के घड़े शब्द वृथा शोर हैं।

अरस्तु, एपिकार्मस और एम्पे डौक्लीज आदि महाशय, प्राय: इसी वैदिक भाव की प्रतिध्वनि करते हैं कि भौतिक पदार्थों अथवा शक्तियों का दूसरा नाम देव था। यथा—“It has been handed down by early and very ancient people, and left in the form of myths, to those who came after that these (the first principles of the world) are the gods, and that the divine embraces the whole of nature।”15 अर्थात्-प्राचीन और अति पुरातन जाति में यह विचार आ रहा है कि संसार के मूल तत्त्व ही देव हैं और ईश्वर सारी प्रकृति में व्यापक हैं।

रहस्यवादी मत-ईश्वर ने मनुष्य को भाषा सिखाई। बाइबल और क़ुरान के अनुसार ईश्वर ने आदम को नाम सिखाए और आदम ने पशु पक्षियों आदि के नाम रखे। बाइबल का आदम आदि-देव ब्रह्मा है। भारतीय मतानुसार वही लोक-भाषा का प्रवर्तक है। अन्य अनेक लेखक भी यही मानते हैं कि आदि में ईश्वर ने ऋषियों को भाषा की शिक्षा दी। इस मत को यदि पूर्वोक्त देव-पक्ष के साथ इकट्ठा पड़ा जाए, तो विषय पूर्ण स्पष्ट हो जाता है, अन्यता नहींं।

इस मत के अनुसार यूरोप के विचारकों ने भी तीन मत रखे हैं—

पूह-पूह मत (pooh-pooh)—आश्चर्य, भय, प्रसन्नता और पीड़ा आदि के समय मनुष्य सहसा कई उच्चारण करता है उदाहरण: आहो, बत, आ, अहह। वेद में इनका प्रयोग है। ये मूल में आधिदैविक ध्वनियाँ थीं। इनका अनुकरण मनुष्य में हुआ। इसे सिंग-सौंग अथवा प्रांभिक अस्पष्ट गीत (primitive inarticulate chants) नाम भी देते हैं।

टा-टा मत—इसमें अक्षिनिकोच अथवा शरीर-संकोच आदि का शब्द में प्रकट करना पाया जाता है। यथा ऊँ-ऊह इत्यादि।

डिंग-डांग मत–शब्द और अर्थ में रहस्यमय में सम्बन्ध है। अतः पदार्थ के सामने आते ही उसके लिए शब्द मानुष के सामने स्वाभाविक ही आ गया। इस मत के अनुसार शब्द अर्थ का कृतक अथवा वाचनिक सम्बन्ध नहींं, प्रत्युत स्वाभाविक सम्बन्ध है। पर इसका भाषा की उत्पत्ति के साथ साक्षात्‌ सम्बन्ध नहींं है।

अर्ध वैज्ञानिक मत—यह मत वर्त्तमान युग का है। इसके विषय में इटली का लेखक मेरियो पाई लिखता है—“One hypothesis, originally sponsored by Darwin is to the effect that speech was in origin nothing but mouth-panto-mime, in which the vocal organs unconsciously attempted to mimic, gesture by the hands”16 अर्थात्—आदि में डार्विन ने एक कल्पना की। तद्‌नुसार मूल में वाणी मुख का मूक-अभिनय था। इसमें आस्यग्त ध्वनि-यंत्र अज्ञात रूप से हाथों के अभिनय की नक़ल करते थे।

जैस्पर्सन लिखता है—“Language was not deliberately framed by man, but sprang from necessity from his innermost nature”17 अर्थात्—मनुष्य ने विचारपूर्वक भाषा का निर्माण नहीं किया। परन्तु यह आवश्यकता के कारण उसके चरम–आंतरिक स्वाभाव से निकली। वर्तमान वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार भी यह मत वैज्ञानिक नहींं, पर रहस्यवादी से कुछ सम्बन्ध रखता है।

मनोवैज्ञानिक मत

बौ-वौ-मत—इस का नाम “Bow-Wow” मत है। इस मत में प्राकृतिक शब्दों के अनुकरण (imitations of sounds in nature) का भाव काम करता है। यथा कुत्ता बौ-वौ करता है। उसकी इस ध्वनि के अनुकरण पर उसका ‘बौ-वौ’ नाम पड़ा। यही अवस्था कौआ, काक (Crow) अथवा म्याऊँ नाम की है।

अतः हम यह कह सकते हैं कि भाषा की उत्पत्ति से सम्बन्धित अनेक मत रचे गए हैं, लेकिन यह सब कल्पना पर आधारित हैं। अभी तक भाषा की उत्पत्ति सम्बन्धित सवालों के सही समाधान नहींं मिले और भाषा की उत्पत्ति तो बहुत बड़ा गंभीर विषय है। यहाँ विचार किए गए मतों के तर्क भी हैं। वास्तव में अभी तक भाषा की उत्पत्ति के प्रश्न का कोई सर्वमान्य और उचित समाधान नहींं खोजा जा सका है। यह तो निरन्तर अनुसन्धान करने का विषय है। भाषा की उत्पत्ति से आशय उस काल से है जब मानव ने बोलना आरम्भ किया और ’भाषा’ सीखनी आरम्भ की। इस विषय में बहुत सी संकल्पनाएँ हैं जो अधिकांशतः अनुमान पर आधारित हैं। मानव के इतिहास में यह काल इतना पहले आरम्भ हुआ कि इसके विकास से सम्बन्धित कोई भी संकेत मिलने असम्भव हैं।

संदर्भ:

  1. डॉ. राम विलास शर्मा, भाषा और साहित्य, पृ-61

  2. डॉ. राम विलास शर्मा, भाषा और साहित्य, पृ-64, 65

  3. डॉ. राम विलास शर्मा, भाषा और साहित्य, पृ-63

  4. पाणिनीय शिक्षा, पृ-32

  5. ब्लूमफील्ड, लैंग्वेज, पृ-21

  6. बाबुराम सक्सेना, सामान्य भाषा विज्ञान, पृ-6

  7. मंगलदेव शास्त्री, तुलनात्मक भाषा शास्त्र, दूसरा परिच्छेद, पृ-17

  8. भोला नाथ तिवारी, भाषा विज्ञान, पृ-2, 3

  9. भोला नाथ तिवारी, भाषा विज्ञान, पृ-3

  10. मेरियो। पेइ, डिकशनरी ऑफ़ लिंग्विस्टक, पृ-119

  11. आप एवेदमग्र आसु: ता आप: सत्यमसृजन्त। सत्यं ब्रह्म, ब्रह्म प्रजापतिम, प्रजापतिदेवान

  12. दैविक वा मय का इतिहास, भाग प्रथम (संस्करण द्वितीय) पृ-4 टिप्पणी 1

  13. तथैव, टिप्पणी 2

  14. Lectures on the Science of Language, Vol. II, p. 334।

  15. अरस्तु का मैटाफिजिक्स, 11वीं पुस्तक, Lectures on the Science of Language, Vol II, p. 432

  16. Mario Pei, Story of Language, p.18

  17. Jesperson, p. 27

डॉ. के. महालक्ष्मी
सहायक प्राध्यापक,
लोयोला कॉलेज

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