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हिन्दी नाटक साहित्य और नारी चित्रण

 

नारी

नारी सत्य, प्रेम और विश्वास का रूप है। उसमें श्रद्धा, भक्ति और त्याग का जीवित चित्रण है। कला चेतना उसमें विद्यमान है। लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती भी नारी के प्रतीक रूप है। 

नारी एक अगरबत्ती की तरह है जो अपना सर्वस्व हवन कर सम्पूर्ण जगत् को सुगंधित करती है और अन्त में भस्मीभूत होकर राख में परिणीत हो जाती है। 

नारी माता है, पत्नी है, पुत्री है, बहन है, भाभी है, प्रेमिका है, साथी है, सहयोगी है। नारी एक ऐसा फूल है जो छाया में भी सुगन्ध फैलता है। पति के लिए त्याग, सन्तान के लिए ममता, दुनिया के लिए दया, जीव-मात्र के लिए करुणा सँजोने वाली नारी ही तो है। नारी समाज का एक अभिन्न अंग ही नहीं अपितु नारी से ही समाज है। नारी के बिना भारतीय समाज ही नहीं बल्कि सारी सृष्टि ही अधूरी प्रतीत होती है। 

भारतीय नारियों में त्याग, सेवाभाव, सहिष्णुता एवं निष्ठा के गुण विद्यमान है। नारी प्राचीन काल से ही अपनी अद्भुत शक्ति प्रतिभा, चातुर्थ, स्नेहशीलता, धैर्य, समझ, सौन्दर्य के कारण हर मोर्चे पर पुरुष से आगे रही है। जहाँ वह पति को पूज्य व देव तुल्य मानती है, वहाँ पति भी उसे गृहलक्ष्मी कहकर किसी देवी से कम नहीं समझता। 

स्त्री के बिना तो किसी घर की कल्पना ही नहीं की जा सकती इसीलिए कहा गया है:

“बिन घरनी घर भूत समान।” 

पुरुष के लिए नारी प्रेरणा का एक स्त्रोत है। प्रेरणा का सूक्ष्म प्रभाव होता है। केवल उसकी उपस्थिति ही सब चमत्कार कर देती है। 

हिन्दी नाटकों का विकास

शुक्ला जी ने लिखा है, “विलक्षण बात यह कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ।”1

हिन्दी साहित्य के इतिहास में छ्ठें दशक में लिखा गया नाटक एक आंदोलन के हिस्से के रूप में अंकित किया जा सकता है। यह वह दौर रहा जब नाटक पाठ्य नाटक की श्रेणी से ऊँचा उठकर दृश्य नाटक के रूप में अवतरित होने लगा। वास्तव में नाटक का अभीष्ट भी उसकी दृश्यात्मकता है। दृश्य-काव्य के रूप में हमारे समक्ष केवल नाटक विधा ही होती है। छठें दशक से नाटक में उसका दृश्य होना नाटककार का अभीष्ट रहा। 

“भारतीय संस्कृति एवं साहित्य में जहाँ राम-सीता के गार्हस्थ दाम्पत्य भाव की परंपरा मिलती है, वहाँ उसके साथ-साथ स्वच्छ्न्द व साहसिक प्रेम की भी एक अन्य परंपरा ऋग्वेद से लेकर मध्ययुगीन साहित्य तक बराबर मिलती है।”2

हिन्दी नाटकों का विकास उत्तर रीतिकाल में ही लक्षित होता है, किन्तु उस कालखंड में गद्य भाषा का विकास न होने के कारण पद्यमयता ही अधिक है। इस कालखण्ड के प्रमुख नाटकों में प्राणचन्द चौहान कृत ‘रामायण महानाटक’ (संवत् 1667), रघुराज नागर कृत ‘सभासार’ (संवत् 1757), लछिराम कृत ‘करुणाभरण’ (संवत् 1772) उल्लेखनीय है। इसके उपरान्त ब्रजभाषा में लिखे गये नाटक रीवाँ नरेश विश्वनाथ सिंह कृत ‘आनन्द रघुनन्दन’ तथा भारतेन्दु के पिताजी गोपालचन्द कृत ‘नहुष’ (सन् 1841 ई.) को हिन्दी के प्रारंभिक नाटकों की श्रेणी में रखा जा सकता है। 

भारतेन्दु ने न केवल मौलिक नाटकों का सृजन किया बल्कि अनेक नाटकों का अनुवाद भी किया है। बच्चन सिंह ने भारतेन्दु जी के बारे में ऐसे लिखते हैं “उनके मौलिक नाटकों में अतीत का गौरव-गान भी है और युगानुरूप नई नाट्य परंपरा की शुरूआत भी”3 भारतेन्दु का नाट्य साहित्य इस प्रकार है: रत्नावली, विद्यासुंदर, पाखण्ड विडम्बन, धनंजय विजय, मुद्राराक्षस, कर्पूर मंजरी तथा दुर्लभ बन्धु सभी अनूदित नाटक हैं। मौलिक नाटक इस प्रकार हैं: सत्य हरिश्चन्द्र, चन्द्रावली, सती प्रताप, भारत दुर्दशा, भारत जननी, अंधेर नगरी, प्रेम जोगिनी, नील देवी आदि। प्रताप नारायण मिश्र भारतेन्दु युग के प्रतिनिधि नाटककार हैं, इन्होंने निम्न नाटकों की रचना की है: दूध का दूध, पानी का पानी, जुआरी-खुआरी, कलि कौतुक रूपक, हठी हम्मीर, संगीत शांकुतल तथा भारत दुर्दशा आदि। बालकृष्ण भट्ट भी उसी युग की नाटककार हैं। इनकी नाटक रचना इस प्रकार हैं: शर्मिष्ठा, पद्मावती, चन्द्रसेन, मृच्छकटिक, किरातार्जुनीय, पृथुचरित्र, शिशुपाल वध, नल-दमयन्ती स्वयंवर, शिक्षादान, आचार विडम्बन, नयी रोशनी का विष, सीता का वनवास, पति पंचम, बृहन्नला, वेणु संहार तथा जैसा काम वैसा परिणाम आदि। लाला श्रीनिवास ने प्रहलाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर के प्रेम मोहनी तथा संयोगिता स्वयंवर आदि नाटकों की रचना की है। राधाचरण गोस्वामी ने सती चन्द्रावली, अमर सिंह राठौर तथा श्रीदामा नाटकों की रचना की है। राधाकृष्ण दास के नाटक इस प्रकार हैं: दुःखिनी बाला, पद्मावती, धर्मालाप तथा महाराणा प्रताप। अंबिका दत्त व्यास ने चार नाटक लिखे हैं: ललिता, गोसंकट, मन की तरंग तथा भारत सौभाग्य। 

जयशंकर प्रसाद के नाटक 1915 से प्रकाशित हो रहे हैं। हिन्दी नाट्य-साहित्य के उद्भव और विकास की दृष्टि से जैसे भारतेन्दु का नाम अविस्मरणीय है, उसी प्रकार उसे उत्कर्ष तक पहुँचाने में प्रसाद जी का नाम अमर है। वे अभी तक के श्रेष्ठ नाटककार हैं। उनके नाटकों के गुण उनकी निजी प्रतिभा के प्रतिफल है। प्रसाद जी ने राज्यश्री, विशाखा, अजातशत्रु, कामना, जनमेजय का नागयज्ञ, स्कन्धगुप्त, एक घूँट, चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी जैसे उत्कृष्ट नाटकों की रचना की है। उनके परवर्ती नाटककार उनके नाट्यादर्शों को ही ग्रहण करके नाट्य रचना में प्रवृत्त हुए हैं। प्रसाद युग के नाटककारों में बद्रीनाथ भट्ट का स्थान महत्त्वपूर्ण है उनके नाटक इस प्रकार हैं: कुरुवन, दहन, चन्द्रगुप्त, चुंगी की उम्मीदवारी, बेन चरित, तुलसीदास, दुर्गावती, लबड़घोंघा, विवाह विज्ञापन तथा मिस अमेरिकन आदि। इसी क्रम में राधेश्याम कथावाचक की नाट्य रचना इस प्रकार है: वीर अभिमन्यु, परिवर्तन, मशीर की हूर, कृष्णावतार, रुक्मिणी मंगल, श्रवण कुमार, ईश्वर भक्ति, भक्त प्रहलाद, द्रौपदी स्वयंवर, उषा-अनिरुद्ध, वाल्मीकि, शकुन्तला तथा सती पार्वती आदि। आगा हश्र कश्मीरी का रंगमंचीय नाटककारों में प्रसिद्ध स्थान है। हश्र जी के निम्नलिखित नाटक हैं: सूरदास, गंगा अवतरण, वनदेवी, सीता वनवास, मधुर मुरली, श्रवण कुमार, धर्मी बालक, भीष्म प्रतिज्ञा तथा आँख का नशा आदि। नारायण प्रसाद बेताब की नाट्य रचना इस प्रकार हैं: महाभारत, ज़हरीला साँप, रामायण, पत्नी प्रताप, कॄष्ण-सुदामा, गणेश जन्म तथा शकुन्तला आदि। 

माखनलाल चतुर्वेदी ने केवल ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ नामक एक नाटक की ही रचना की है। डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र प्रसादयुगीन नाटककार है। इन्होंने शंकर दिग्विजय, असत्य संकल्प, वासना वैभव, समाज सेवक तथा मृणालिनी परिचय आदि नाटक लिखे हैं। सुदर्शन जी के नाटकों की रचना इस प्रकार हैं: दयानंद, अंजना, आनरेरी मजिस्ट्रेट सिकन्दर तथा धूप-छाँह। जी.पी. श्रीवास्तव का नाम भी प्रसाद युग में ही समावेशित है उनके नाटक निम्न हैं: गड़बड़झाला, दुमदार आदमी, उलटफेर, अच्छा, मर्दानी, औरत, कुर्सी मैन, पत्र-पत्रिका सम्मेलन, न घर का न घाट का, भक्तिन, घर का मैनेजर तथा मिरचानंद आदि। 

प्रसादोत्तर युग 1933 से प्रारंभ हुआ माना जाता है। इसे ही आधुनिक नाटक युग की संज्ञा प्रदान की गयी है। इस युग के ऐतिहासिक नाटक इतिहास को नया प्रतिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं। यथार्थवाद से प्रभावित होकर भावुकता और रोमांस की अपेक्षा इस युग के नाटककार समस्या नाटक लिखने लगे। आधुनिक युग के नाटककारों में लक्ष्मीनारायण मिश्र, डॉ. रामकुमार वर्मा, जगदीशचन्द्र माथुर, उपेन्द्रनाथ अश्क, विनोद रस्तोगी, मन्नू भंडारी, मोहन राकेश, लक्ष्मी नारायण लाल, विष्णु प्रभाकर, ज्ञानदेव अग्निहोत्री तथा सुरेन्द्र वर्मा का नाम उल्लेखनीय है। लक्ष्मीनारायण मिश्र ने समस्या प्रधान नाटकों की रचना की है जो इस प्रकार हैं: संन्यासी, अशोक, राक्षस का मंदिर, मुक्ति का रहस्य, राजयोग, सिन्दूर की होली, आधीरात, गरुड़ध्वज, नारद की वीणा, वत्सराज, दशाश्वमेध, वितस्ता की लहरें, जगद्गुरू, चक्रव्यूह, कवि भारतेन्दु, मृत्युंजय, चित्रकूट, अपराजित तथा धरती का हृदय। डॉ. रामकुमार वर्मा की नाट्य कृतियाँ इस प्रकार हैं: विजय पर्व, कला और कृपाण, नाना फड़नवीस, सरंगस्वर, अग्निशिखा, पृथ्वी का स्वर्ग, जय बँगला, महाराणा प्रताप तथा जय आदित्य। जगदीशचन्द्र माथुर ने तीन सफल नाटकों की रचना की है: कोणार्क, शारदीया तथा पहला राजा। उपेन्द्रनाथ अश्क की नाट्य कृतियाँ इस प्रकार हैं: जय-पराजय, स्वर्ग की झलक, छठा बेटा, क़ैद और उड़ान, भँवर, आदिमार्ग, पैंतरे, अलग-अलग रास्ते, अंजो दीदी तथा आदर्श और यथार्थ। लक्ष्मी नारायण लाल बहुमुखी प्रतीभा के नाटककार हैं। इन्होंने अंधा कुआँ, मादा कैक्टस, सुन्दर रस, सूखा सरोवर, तोता मैना, रक्त कमल, तीन आँखों वाली मछली, रातरानी, दर्पन, सूर्यमुखी, कलंकी, मिस्टर अभिमन्यु तथा कर्फ़्यू जैसी उत्कृष्ट नाट्य कृतियों की रचना की है। विष्णु प्रभाकर ने डॉक्टर और समाधि नामक दो नाटकों की रचना की है तथा गोदान और गबन (प्रेमचन्द कृत) कृतियों का नाट्य रूपान्तरण किया है। 

साठोत्तरी नाटककारों में मोहन राकेश का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। राकेश जी हिन्दी नाटकों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाये हैं। मोहन राकेश ने सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में व्यक्ति के निजी संबंधों के तथा नर-नारी के रिश्तों की विडम्बना को यथार्थ का रूप प्रदान किया है। मोहन राकेश जी के नाटक इस प्रकार हैं: आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस तथा आधे-अधूरे। रंगमंचीय नाटककारों में विनोद रस्तोगी को स्थान प्राप्त होता है। इनके नाटकों में भारत की स्थिति तथा बदलते जीवन मूल्यों से निर्मित समस्याओं का चित्रण पाया जाता है। इनके नाटक इस प्रकार हैं: नये हाथ, बर्फ़ की मीनार, जनतंत्र जिन्दाबाद, देश के दुश्मन, फिसलन और पाँव तथा भगीरथ के बेटे आदि। 

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटक साहित्य के विकास में डॉ. शंकर शेष का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। डॉ. शंकर शेष ने हिन्दी नाटक को विविध माध्यमों के द्वारा प्रतिष्ठा दिलाने का भरसक प्रयत्न किया है। डॉ. शंकर शेष ने 22 नाटकों, 7 एकांकी नाटकों, 2 बाल नाटकों तथा 4 अनूदित नाटकों की रचना की है। डॉ. शंकर शेष का सम्पूर्ण नाटक साहित्य इस प्रकार है: मूल नाटक—मूर्तिकार, रत्नगर्भा, नई सभ्यता नये नमूने, बेटों वाला बाप, तिल का ताड़, बिन बाती के दीप, बाढ़ का पानी, खजुराहो का शिल्पी, फन्दी, एक और द्रोणाचार्य, कालजयी (मराठी), कालजयी, घरौंदा, अरे मायावी सरोवर, रक्तबीज, राक्षस, पोस्टर, चेहरे, त्रिकोण का चौथा कोण, कोमल गांधार और आधी रात के बाद। एकांकी नाटक—विवाह मंडप, हिन्दी का भूत, त्रिभुन का चौथा कोण, एक प्याला काफ़ी, अजायबघर, पुलिया तथा सोपकेस। बाल नाटक—दर्द का इलाज, मिठाई की चोरी। अनूदित नाटक—दूर के दीप, एक और गार्बो, चल मेरे कद्दू ठुम्मक-ठुम्मक कुम्प तथा पंचतंत्र। सुरेन्द्र वर्मा ने द्रौपदी, छोटे सैय्यद बड़े सैय्यद, आठवाँ सर्ग, सेतुबंध, नायक तथा खलनायक, विदूषक आदि। नाटकों की रचना की है। विपिन कुमार अग्रवाल ने ‘तीन अपाहिज’ नामक नाटक लिखा है। मणिमधुकर ने रस गंधर्व, दुलारी बाई, खेला पोलमपुर, इकतारे की आँख तथा बुलबुल सराय जैसे नाटकों की रचना की है। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का बकरी तथा शरद जोशी के अंधों का हाथी तथा एक था गधा उर्फ़ अलादाद खाँ प्रसिद्ध नाटक हैं। स्वदेश दीपक ने कोटे मार्शल जैसी उत्कृष्ट नाट्य रचना का सृजन किया है। भीष्म साहनी के नाटक इस प्रकार हैं: हानूस, कबिरा खड़ा बाज़ार में, माधवी, मुआवजे, रंग दे बसंती चोला, फ्यूजीयामा तथा आलमगीर। मुद्राराक्षस के नाटक हैं: राह ये मात, तिलचट्टा, मरजीवा, योर्से फेथफुली, गुफाएँ, तेंदुआ, संतोला एवं आला अफ़सर। हमीदुल्ला ने निम्न नाटकों की रचना की हैं—दरिंदे, उलझी आकृतियाँ, उभर उर्वशी, हर बार, एक और युद्ध, घरबंद, अपना-अपना दर्द तथा ख़्याल भारमली। नरेन्द्र मोहन के कहै कबीर सुन भई साधो, कलंदर, सींगधारी, नो मैन्स लैंड तथा अभंग गाथा आदि नाटक प्रसिद्ध हैं। उदयशंकर भट्ट के मत्स्य गंधा, विश्वामित्र तथा राधा नाटक प्रसिद्ध हैं। सुमित्रानन्दन पंत ने निम्न नाटकों की रचना की है: शिल्पी, रजत शिखर तथा सौवर्ण। गिरिजाकुमार माथुर ने कल्पांतर, दंगा, राम, घरा दीप, स्वर्ण श्री, अमर तथा हे आलोम आदि नाटक लिखे हैं। सिद्धनाथ कुमार ने सृष्टि की साँझ और अन्य नामक नाटकों की रचना की है। डॉ. धर्मवीर भारती ने ‘अंधायुग’ जैसे सफल गीतिनाट्य की रचना की है। दुष्यन्त कुमार का एक कंठ विषपायी सफल गीतिनाट्य है। 

इसके अतिरिक्त रमेश बक्षी, मृदुला गर्ग, दया प्रकाश सिन्हा, सत्यव्रत सिन्हा, लक्ष्मीकान्त वर्मा, पृथ्वीनाथ वर्मा, जयनाथ नलिन, नरेश मेहता, सर्वदानन्द, विमला रैना, सन्तोष नारायण, नौटियाल, सुशील कुमार सिंह, बलराज पंड़ित, ज्ञानदेव अग्निहोत्री, गिरीश कर्नाड, बादल सरकार, बसंत कानेटकर, जयवंत दलवी, विजय तेंदुलकर, उत्पल दत्त, करतार सिंह दुगाल, जगन्नाथ दास, शिवकुमार जोगी आदि नाटककारों ने अपनी नाट्य कृतियों के माध्यम से नाटक साहित्य की समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है तथा दे रहे हैं। 

हिन्दी नाटक साहित्य में नारी चित्रण:

पारसी रंगधारा के अवसान के समय हिन्दी नाटक और रंगमंच की एक नई शुरूआत हुई। नाटकों के विषय सर्वहारा वर्ग से जोड़े गए। भूख, शोषण और ग़रीबी के ख़िलाफ़ जनवादी मंच उठ खड़ा हुआ। उस समय (लगभग 1944) रामानंद सागर और पृथ्वीराज कपूर के द्वारा लिखित ‘कलाकार’ नाटक में नारी को आधुनिक दिखाने के लिए उसे सोसाइटी गर्ल के रूप में ढाल नएपन का अहसास कराती है। 

डॉ. लक्ष्मीनारायण लिखित ‘मादा कैक्टस’ (1966) नाटक में स्वच्छन्द प्रणय में विश्वास करने वाले स्त्री और परंपरावादी पत्नी के रूप में एक स्त्री को चित्रण किया है। नारी पुरुष से अलग भी अपनी ज़िन्दगी जी सकती है ऐसा कथा चित्रण हुआ है। 

विष्णु प्रभाकर के नाटक चर्चित रहे। 1958 में प्रकाशित इनका नाटक ‘डॉक्टर’ नारी विमर्श का नाटक है। इसमें लेखक महिलाओं को शिक्षित करने के विचार में संकीर्ण मानसिकता वाले पुरुषों को महिलाओं के विरुद्ध खड़ा कर दिया है। कर्त्तव्य भावना और नारी की प्रतिशोध भावना और उनके संघर्षों को दिखाया गया है। 

लोकप्रिय नाटककार रमेश मेहता ने ‘अंडर सैक्रेटरी’ नामक नाटक में साधारण परिवार की महिला सरोज की प्रदर्शन प्रवृत्ति का परिणाम दिखाया है। 

भारतीय रंगमंच देश की सीमाओं को लाँघने लगा। 1963 में मोहन राकेश का दूसरा नाटक ‘लहरों के राजहंस’ प्रकाशित हुआ। इसमें कामोत्सव मानने वाले एक स्त्री और भिक्षुणी बनने जा रहे गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा की कथा है। 

मोहन राकेश को ‘नाटक का मसीहा’ बनाने में ‘आधे-अधूरे’ का योगदान है। यह उनकी समस्त साहित्य रचना में एक मील का पत्थर रहा है। जिसका प्रकाशन सन् 1969 में हुआ। इस नाटक में कामचोर पति के कारण जीविका के लिए काम करने वाली स्त्री माँ के रूप में, परिवार के विरुद्ध विवाह करने वाली बड़ी बेटी, ज़िद्दी और उद्दंड रूप में छोटी लड़की ऐसी तीन स्त्रियाँ हैं। स्त्री के विविध रूपों को लेखक इस नाटक में दिखाया है। 
लक्ष्मीनारायण लाल का नाटक ‘रात रानी’ में नायिका कुंतल की चरित्र-सृष्टि विशिष्ट है। वह एक आदर्श भारतीय पतिव्रता स्त्री है। उसके व्यक्तित्व में अदम्य साहस है। वह प्रेम की प्रतिमूर्ति है। उसके संवादों में उसका व्यक्तित्व उभरता है। संघर्ष और द्वन्द्व उसके चरित्रांकन के कारण नाटक में गहराई आती है। 

विनोद रस्तोगी लिखित ‘बर्फ़ की दीवार’ नाटक में कायर प्यार के कारण माँ होने वाली एक स्त्री बर्फ़ की मीनार हो जाती है इसलिए वह अपनी बेटी के साथ अनुशासन लागू करती है। फिर भी उसकी बेटी भी कायर प्रेम के कारण बर्फ़ की मीनार बन जाती है। 

कथ्य, शिल्प, रंगतत्व आदि सभी दृष्टियों से हिंदी नाटक सन् 1970 के बाद से और अधिक समृद्ध हुआ है। संख्या की दृष्टि से भी हिंदी नाटक अत्यधिक लिखे जाने लगे। 

सुरेंद्र वर्मा ने सन् 1971 में ‘द्रौपदी’ नामक नाटक प्रकाशित किया। द्रौपदी के रूप में महाभारतकार ने एक विलक्षण स्त्री का निर्माण किया था। उसके चरित्र को समक्ष रखकर वर्मा ने आज के परिप्रेक्ष्य में सुरेखा को उसके समकक्ष देखा। सुरेखा की स्थिति वैसी ही है जैसी द्रौपदी की महाभारत में। द्रौपदी नाटक वस्तुतः नगरीय जीवन की त्रासदी को ही उद्घाटित करता है। सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक सुरेंद्र वर्मा का 1975 में प्रकाशित नाटक है। एक रात्रि की फ़ैंटेसी गाथा से भरा कथानक है। 

अविश्वसनीय से इस कथानक के अनुसार रानी शीलवती अपने पूर्व प्रेमी प्रतोष का वरण करती है और एक पूरी रात उसके साथ काम-कंदला के रूप में व्यतीत करती है। रानी शीलवती नियोग के बाद धर्मनटी न रहकर कामनटी में परिवर्तित हो गई है। 

स्वातंत्र्योत्तर नई कहानी के आंदोलन में रमेश बक्षी ने भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। सातवेंं दशक के नाटककार का मुख्य प्रिय विषय स्त्री-पुरुष सम्बन्ध रहा है। रमेश बक्षी का नाटक ‘देवयानी का कहना है’ भी इसी विषय को ही समेटे हुए है। जो विवाह संस्था की सामाजिक मान्यताओं पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा देता है। 

सन् 1974 में प्रकाशित ‘पेपरवेट’ रमेश उपाध्याय का पहला नाटक है। नाटक के केन्द्रीय पात्र एक लड़का और एक लड़की (मीरा) हैं। यह लड़की जीवन के अनेक कटु अनुभवों से बहुत कुछ जान-सीखती है। 

सन् 1975 में हमीदुल्ला का दूसरा नाटक-संग्रह ‘दरिन्दे’ से प्रकाशित हुआ। इस नाटक में पत्नी को स्वार्थवश पति अपने मित्र की भोग्या बनने के लिए कहता है, पत्नी स्वच्छंद होकर पति की हत्या करती है। 

निष्कर्ष में यह कह सकते हैं कि हिंदी नाटक के छठे, सातवें, आठवें दशक की यह यात्रा हिंदी रंगमंच के विकास की यात्रा है। इन तीन दशकों का नाटक प्रयोगधर्मी नाटक कहा जा सकता है। परंपरा या लीक से हटकर कुछ कहने का प्रयास किया गया। 

नारी के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण युक्त इन दशकों का नाटक है। नारी घर की चारदीवारी में क़ैद न रहे, उसे सेवाकार्य, शिक्षाप्राप्ति, समाज में उच्च स्थान आदि का अधिकार रहें। आठवें दशक तक आते-आते नारी का उन्मुक्त रूप भी विषय बना। उसे भी पुरुष मोह व्याप्त हो सकता है। वह आसक्त भाव से पुरुष से प्रणय की आकांक्षा कर सकती है आदि भाव नाटककारों ने उभरने दिए हैं। पति, प्रेमी, मित्र और अन्य के मध्य फँसी नारी तथा इन्हीं स्थितियों को नाटकों के कथानक के पात्र बनकर उभरे हैं। 

डॉ. महालक्ष्मी के
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग
लोयोला कॉलेज, चेन्नई, तमिलनाडु
whatsapp-9566032350
mahavijayan10@gmail.com

संदर्भ 

  1. हिंदी नाटक का विकास, आचार्य रामचंद्र शुक्ला, पृष्ठ-9

  2. हिन्दी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, डॉ. विजयपाल सिंह, पृ। सं /: 97

  3. हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास बच्चन सिंह पृष्ठ-299। 

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