बुंदेलखंड का लोक पर्व: भुजरिया
आलेख | सांस्कृतिक आलेख हेमेन्द्र सिंह1 Sep 2024 (अंक: 260, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
हमारा देश त्योहारों का देश है। हम प्रकृति प्रेमी हैं, प्रकृति पूजक हैं। सूर्य चन्द्रमा, तारे, पर्वत, पेड़-पौधे, जीव-जंतु हमारे लिए सब पूज्य हैं। गोस्वामी जी साफ़-साफ़ कहते हैं, “जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।” तो भुजरिया भी प्रकृति पूजा का एक लोक पर्व है।
भाषायी दृष्टि से भुजरिया संज्ञा शब्द है, स्त्रीलिंग है। इसका शाब्दिक अर्थ ‘जरई’ है। जरई का अर्थ अंकुरण से होता है। भुजरिया को कहीं-कहीं कजरिया (कजलिया) भी कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि यह हरियाली का त्योहार है। यह त्योहार अच्छी वर्षा, अच्छी फ़सल और सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता है।
वस्तुतः भुजरिया मुख्य रूप से बुंदेलखंड क्षेत्र का लोक पर्व है पर यह बुंदेलखंड के निकटवर्ती क्षेत्रों और मालवा, निमाड़, महाकौशल के बहुतेरे क्षेत्रों में भी मनाया जाता है।
यह पर्व प्रकृति प्रेम और ख़ुशहाली से जुड़ा है। इसे विशेष रूप से कृषक और कृषि से जुड़े जन सामान्य में विशेष उत्साह से मनाया जाता है।
मेरे नाना जी परम् सन्त चौधरी गरीबदास सिंह बताया करते थे कि “श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को ग्राम वासी बाँस की छोटी टोकरियों में, मिट्टी के बड़े सकोरों में या मिट्टी के घड़े के निचले अर्द्ध भाग में खेत की मिट्टी बिछा कर उसमें गेहूँ और जौ के दाने बोते हैं। यह गेहूँ और जौ उसी अनाज में से लिये जाते हैं जिसे किसान अगली रबी की फ़सल के लिए क्वांर माह में बोने वाले होते हैं। यह दाने जितने अच्छे अंकुरित होते हैं उतनी अच्छी फ़सल होने का भरोसा हो जाता है।”
इस दृष्टि से भुजरिया पर्व पूर्ण रूपेण कृषक व कृषि से जुड़े लोगों की प्रकृति पूजा का त्योहार है।
सावन के महीने की शुक्ल पक्ष की नवमीं (कहीं कहीं अष्टमी को भी) बोए गए इन दानों में प्रतिदिन पानी दिया जाता है। अस्तु यह भुजरिया एक दो दिन में ही अंकुरित होकर पूर्णमासी तक ख़ूब बड़ी हो जाती हैं। इन्हें देखकर लोग बड़े प्रसन्न होते हैं। जिसकी भुजरिया अधिक बड़ी, घनी व कजरारी होती हैं उनकी प्रसन्नता तो देखते ही बनती है। अधिकांश क्षेत्रों में सावन की पूर्णमासी के दिन मुहूर्त के अनुसार दिन में रक्षाबंधन होता है और सायंकाल भुजरिया विसर्जन का उत्सव होता है।
बाल, वृद्ध, पुरुष महिलाएँ, बच्चे सजधज कर बड़े उत्साह से अपनी अपनी भुजरियों के पात्र घर से बाहर निकालते हैं। उन्हें झूला झुलाते हैं फिर ठट्ट के ठट्ठ गाते, उछलते-कूदते निकटस्थ जल स्रोत (तालाब/पोखर) पर पहुँच कर भुजरियों को सावधानी से उखाड़ लेते हैं (नुन लेते हैं) फिर कुछ भुजरियों सहित पात्रों का इन जल स्त्रोतों में विसर्जन कर दिया जाता है। सर्वप्रथम सभी निकटस्थ देव स्थल पर भुजरिया चढ़ाते हैं तत्पश्चात् एक दूसरे को भुजरिया देते हैं और परस्पर बधाई देते हैं, हर्षोल्लास प्रकट करते हैं। इस अवसर पर छोटे बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। भुजरिया आदान-प्रदान की इस प्रथा को “भुजरियाँ बाँधना” कहा जाता है।
कई क्षेत्रों में रक्षा बंधन के अगले दिन भुजरिया विसर्जन का उत्सव मनता है।
इसकी एक कथा है। आल्हा की बहन का नाम चंदा था। वह श्रावण माह में ससुराल से मायके महोबा आई तो सारे नगरवासियों ने उसके स्वागत में भुजरिया बोई। रक्षाबंधन के दिन तालाब के घाट पर एक मेले का आयोजन किया गया और फिर चंदा सहित सब नर-नारी मेले में पहुँचे और बड़े उत्साह से भुजरियों विसर्जन का आयोजन किया गया। बताया जाता है कि इसी समय महोबे के राजा परमाल, की बिटिया राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबे पर चढ़ाई कर दी। राजकुमारी उस समय तालाब में कजली सिराने अपनी सखी-सहेलियों के साथ गई थी। राजकुमारी के अपहरण की मंशा का पता चलते ही उनकी रक्षा के लिए महोबा के वीर पृथ्वीराज की सेना से भिड़ गए। आल्हा-ऊदल-मलखान, चन्द्रावली के भाई, ब्रह्मा सिंह, रंजीत सिंह, ममेरे भाई अभई सिंह आदि वीरों ने अपनी वीरता व पराक्रम से पृथ्वी राज की सेना को खदेड़ दिया। महोबा की विजय तो हुई पर युद्ध में अनेक सैनिकों के साथ-साथ राजा परमाल के पुत्र रंजीत और उनके साले माहिल (उरई) के पुत्र अभई वीरगति को प्राप्त हो गए, जिससे महोबे में शोक की लहर दौड़ गयी। भुजरिया विसर्जन धरा रह गया। तब से महोबा सहित कई क्षेत्रों में भुजरिया पर्व राखी के अगले दिन मनाया जाता है।
पूरे बुन्देलखण्ड में प्रतिवर्ष भुजरियन का त्योहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है। भुजरियन की शोभा यात्रा गाजे-बाजे और पारंपरिक गीत गाते हुए निकाली जाती है। फिर पूरे श्रद्धा भाव से नदियों, तालाबों में भुजरिया विसर्जन होता है। फिर लोग एक-दूसरे से गले मिलते हैं। एक दूसरे को भुजरिया देकर यथायोग्य नमन, वंदन करते हैं। एक दूसरे की ख़ुशियों की कामना करते हैं।
ठेठ देहात में जाकर एक बार आप भुजरिया का मेला अवश्य देखें। बड़े बूढ़ों महिलाओं बच्चों को रंग बिरंगे कपड़े पहने, हर्षोल्लास से झूमते गाते देखकर आप भी हर्ष से निश्चित ही झूम उठेंगे।
“मेरे भारत की माटी है
चन्दन और अबीर;
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया,
सौ-सौ नमन करूँ।” (सोम ठाकुर की पंक्तियाँ)
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Dr R B Bhandarkar 2024/09/12 10:30 PM
भाषा व शैली की दृष्टि से,कथ्य की प्रस्तुति के आलोक में बहुत सुंदर रचना के लिए लेखक श्री हेमेन्द्र सिंह को बधाई।