एक गाँव ऐसा भी . . .
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’1 Aug 2022 (अंक: 210, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
हमारा गाँव बहुत बड़ा है। दस हज़ार की आबादी है। सड़क, बिजली, पानी सब कुछ है। मंदिर-मस्जिद और पुस्तकालय भी है। लोगों को मंदिर-मस्जिद और मोबाइल से फ़ुर्सत नहीं मिलती इसलिए पुस्तकालय पर ताला पड़ा रहता है। सरकारी अस्पताल है, किन्तु वहाँ जाने वालों को बड़ी हीन दृष्टि से देखा जाता है। सच कहें तो अस्पताल ख़ुद भी हीन स्थिति में है। डाक्साहब शहर से कभी आते नहीं इसलिए गाँव के सारे मरीज़ शहर जाते हैं। कहने को तो गाँव में सह-शिक्षा वाला सरकारी स्कूल भी है, लेकिन वहाँ विद्यार्थी नहीं दिखाई देते। जहाँ सरपंच की भैंस और मास्साब की तनख़्वाह, दोनों बँधी-बँधाई है। भैंस दूध देती है, मास्साब शिक्षा व्यवस्था को दूह लेते हैं। बाक़ी विद्यार्थियों का क्या है, उनके लिए हैं ना भोले गाँव की छाती पर गाढ़ दिया गया ‘अलां-फलां कान्वेन्ट’ स्कूल। सारे बच्चों की वैचारिक नस्ल वहाँ बदली जा रही है। बच्चे वहाँ पढ़कर अपने माँ-बाप को गँवारू समझना सीख रहे हैं और वहीं माँ-बाप ज़मीन बेचकर मोटी फ़ीस भरते हुए अपने बच्चों को समझदार होना मान रहे हैं। कमाल की उलटबासी है। गाँव में हाथ से ज़्यादा फ़ोन हैं, पैरों से ज़्यादा चहलक़दमी। दरअसल, गाँव स्मार्ट हो चला है।
इसी गाँव में एक बस अड्डा है। एक इसलिए कि एक ही बस आती है। चूँकि यहाँ सभी लोगों के पास अपने-अपने वाहन हैं, सो इस बस सेवा का लाभ वे ही ले पाते हैं जो वाहन-सुख से वंचित हैं। इसलिए अड्डे पर ज़्यादा भीड़ दिखाई नहीं देती। ऐसे दीन-हीन जगहों पर कृतार्थियों की गिद्ध नज़र हमेशा रहती है। एक दिन इसी नज़र के चलते बस अड्डे से बस ग़ायब हो गई और शेष रह गया सिर्फ़ अड्डा। अड्डे पर चाय की टपरी, बैठने के लिए आलीशान चबूतरे और गोपनीय बातें करने के लिए मधुशाला और धूम्रपान केंद्र खोल दिए गए। मधुशाला और धूम्रपान केंद्र के चलते लोगों को पैसा देकर बुलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वे ख़ुद अपनी जमापूँजी लुटाने यहाँ आ जाते हैं। ऐसी बिना बुलाई भीड़ को देखकर किस अवसरवादी की ज़बान न लपलपाएगी! ऐसे ही एक दिन कृतार्थियों के मुखिया ने अपने दर्शन दिए। वहाँ आने वाले लोगों के लिए मधुपान और धूम्रपान की सुविधा मुफ़्त कर दी। मुफ़्त मिले तो ज़हर पीने वालों की भी दुनिया में कमी नहीं। इस अवसर को भुनाने के लिए कृतार्थी के मुखिया ने अपनी मीठी-मीठी बातों से लोगों को फाँसना शुरू किया। लोग मछली की तरह काँटे में फँसते चले गए। बहुत जल्द कृतार्थियों के मुखिया बहुत बड़े नेता बनकर उभरे। चुनाव हुआ और भारी मतों से गाँव के मुखिया बन बैठे। अब वे भोजन कम खाते हैं और ज़मीन ज़्यादा। कहते हैं, ऐसा करने से ही उनका पाचन तंत्र बना रहता है। गाँव के लोग उनकी तारीफ़ के पुल बाँधते और कहते कि यह है बड़ा आदमी। कहते हैं, जब किसी का मुफ़्त में प्रचार-प्रसार होने लगे तो समझ जाओ कि वह आदमी बहुत जल्द बुलंदियों पर होगा। छोटी मछलियों को खाकर बड़ी मछली बनने का खेल केवल तालाब में ही नहीं, ज़मीन पर भी बदस्तूर जारी है।
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