एक ख़त
काव्य साहित्य | कविता सूर्यप्रकाश मिश्रा1 Apr 2015
आरम्भ...
प्रिय लिखूँ
या फिर प्रियतमा कहूँ
बेवफ़ा लिख नहीं सकता
वफ़ा तुमसे ही तो सीखी है.....!
संघर्ष....
तपिश ज़िंदगी की
तो कभी जला न सकी
तेरे वादों से जितना जला हूँ
मैं तो नेमत थी क़ुदरत की
आसमां के तले ही पला हूँ.....!
भूख मिटती अगर रोटी से
कोई भूखा न होता
छलावों भरी इस दुनिया में
काश धोखा न होता .....!
उपसंहार....
वे गलियाँ
वो शहर आज भी वैसे होंगे
यादों के यादों से
बदन वैसे ही मिलते होंगे.....!
दिए यादों के बुझा आया हूँ
छोड़ ये ख़त तेरे लिए
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