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एक थी मोहिनी बाई

जिस दिन मोहिनी बाई के निधन का समाचार मिला, मैं धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। मेरे कान इस ख़बर को सुनने के लिए क़तई तैयार नहीं थे। 

मैंने मोबाइल को कान से सटा लिया और ज़ोर से बोला, “हैलो, वापस कहो, क्या हुआ था उन्हें?”

उधर से आवाज़ आई, “वह तो ठीक ही थी, अचानक जी घबराया तो उन्हें अस्पताल ले गए लेकिन उनके प्राण नहीं बच पाए।” 

“ओफ्फ . . . ”

फ़ोन कट गया था। शायद नेटवर्क की समस्या थी। 

मृत्यु के कारण जो भी रहे हों, लेकिन मोहिनी बाई अब इस दुनिया में नहीं रही थी। 

मोहिनी बाई विधवा थी . . . 

मोहिनी बाई ग़रीब थी . . . 

मोहिनी बाई दुर्बल थी . . . 

आज से 15 साल पहले जब माँ की जाँघ की हड्डी टूट गई थी, मोहिनी बाई हमारे यहाँ एक देवदूत बन कर आई थी, अपने उस छोटे से अँधेरे में लिपटे खिड़की विहीन घर से जहाँ न बिजली थी, न पानी और न कोई टायलेट . . . मैं उनके घर के अन्दर घुसा तो पसीने से नहा गया था। एक छोटी सी रसोई में से लगभग साठ वर्षीया स्त्री निकल कर आई थी दीन-हीन अवस्था में जिसका रंग गोरा था लेकिन कांतिहीन चेहरे पर ग़रीबी और लाचारी का पक्का रंग चढ़ा हुआ था . . . वह सर पर जो ओढ़नी ओढ़े थी, वह भी बहुत पुरानी और फटी हुई थी। 

मैंने उन्हें देखकर कहा, “मुझे आपके यहाँ प्रिया ने भेजा है . . . आपको बताया तो होगा कि मेरी माँ बिस्तर पर हैं, चल-फिर नहीं सकतीं। देख रेख के लिए वहीं रहना होगा, बोलो मंज़ूर है आपको?”

“हाँ, मुझे प्रिया ने बताया था, आप डाॅक्टर हैं, पास के गाँव बोराड़ा में। आपकी माँ के लिए 24 घंटों के लिए एक सहायिका चाहिए जो वहाँ रह सके।” 

“और क्या बताया प्रिया ने?” मैंने पूछा। 

“उसने यह भी बताया कि आपका ननिहाल यहीं सरवाड़ में है और आपकी पत्नी सरकारी स्कूल में पढ़ाती हैं तथा मुझे माँ की देखभाल करनी होगी, बस। प्रिया ने बताया कि झाड़ू-पौंछे, बर्तन के लिए कोई आती है लेकिन खाना मैडम ही बनाती हैं।” 

“ठीक बताया प्रिया ने। आपके ज़िम्मे माताजी का काम ही है तो फिर क्या सोचा आपने?”

मुझे सुनकर वह बोली, “डाॅ. सा, आप देख ही रहे हैं, हमारे घर की हालत . . . मैंने ही प्रिया को कह रखा था कि कोई ऐसा घर हो तो मैं काम करने को तैयार हूँ। दरअसल हमारे हलवाई की दुकान थी लेकिन पति के जाने के बाद सब कुछ चौपट हो गया। मेरे बच्चे तो बड़े हो गए हैं लेकिन कोई काम-धन्धा नहीं है इनके पास।” 

मोहिनी बाई ने जितनी मासिक पगार बताई, उस पर मैंने तुरन्त सहमति दे दी। 

मैंने आश्वस्त भी किया, “आप कोई चिन्ता न करें . . . हम आपको परिवार के सदस्य की तरह ही रखेंगे। खाना-पीना बढ़िया खिलाकर आपकी सेहत भी सुधार देंगे।” 

मोहिनी बाई ने हाथ जोड़ दिए। कहा, “मैं शाम तक बस से बोराड़ा आ जाऊँगी।” 

रवानगी से पहले मैं ठिठका। कुछ सोच कर मैंने पर्स निकाला और हज़ार रुपये निकाल कर मोहिनी बाई के हाथ पर रख कर बोला, “आप आज अपने लिए कपड़े वग़ैरह ख़रीद कर अपना सारा ज़रूरी सामान ले आना क्योंकि बोराड़ा से बार-बार यहाँ सरवाड़ आना सम्भव नहीं होगा।” 

“ठीक है, यह पैसे मेरी पगार में से काट लेना।” 

मैंने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं, ये पैसे पगार में से नहीं काटेंगे। इन्हें आपके कपड़ों के लिए मान लेते हैं जो हम हर वर्ष अलग से देंगे।” 

मैं अपने पदस्थापन स्थान बोराड़ा स्थित अपने क्वार्टर में लौटा तो माँ ने ख़बर ली कि मैं सरवाड़ जाकर क्या करके आया हूँ।

“माँ, अब तुम्हें चिन्ता करने की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि सरवाड़ में रहने वाली मोहिनी बाई नाम की साठ वर्षीया नेकनीयत वृद्ध स्त्री यहाँ रहने को तैयार हो गई है जो तुम्हारे पास 24 घंटे सेवा में रहेगी। बहुत भली महिला है जो विधवा है और ग़रीब भी।” 

“अच्छा बेटा, तब तो मेरी बहू को स्कूल की छुट्टी नहीं करनी पड़ेगी।” 

“हाँ माँ, तुम्हारे पास रात-दिन मोहिनी बाई रहेगी तो मन भी लगा रहेगा,” कह कर मैं हाॅस्पिटल ड्यूटी पर चला गया। 

शाम की पारी की ड्यूटी कर मैं क्वार्टर में लौटा तब पत्नी ने गेट पर ही कह दिया, “मोहिनी बाई आ गई है।” 

“गुड, वेरी गुड,” मैं ख़ुश होकर बोला। 

मैंने देखा, रसोई के बाहर रूम में माँ के पलंग के पास मोहिनी बाई बैठी थी। दूसरे पलंग पर बाबूजी मेरी नौ वर्षीया बिटिया के साथ बैठे हुए माँ व मोहिनी बाई को सुन-बतला रहे थे। मैं भी उनके बीच आकर बैठ गया। पत्नी रसोई में शाम का भोजन बनाने में जुटी थी साथ में सबके बीच हो रहे वार्तालाप को भी सुन रही थी। 

बात-बात में माँ का मोहिनी बाई के ससुर की दुकान से हलवाई व ग्राहक का सम्बन्ध निकल आया था। माँ ने कहा, “अरे, तुम्हारे पति रामाजी के पिताजी की जो हलवाई की दुकान थी, वहाँ से तो मैं जलेबी ख़रीद कर लाया करती थी।” 

फिर सब लोग हँस पड़े थे और मोहिनी बाई ने माँ को भुवाजी कहना शुरू कर दिया था। 

माँ को भी अफ़सोस हुआ कि किस तरह एक खाता-पीता घर मोहिनी बाई के पति की लंबी बीमारी व मृत्यु के बाद ग़रीबी से जूझ रहा था। मुझे ख़ुशी हुई कि मोहिनी बाई परिवार के एक सदस्य की तरह आते ही सबसे घुल-मिल गई थी। 

80 वर्षीया माँ की जाँघ की हड्डी के ऑपरेशन के बावजूद वह चलने फिरने में समर्थ नहीं हो पायी थीं। फ़्रैक्चर से पूर्व भी अपनी कमर व घुटनों की समस्या से जूझ रही माँ ने फ़्रैक्चर के बाद बिस्तर पकड़ा तो वे चलने-फिरने में लाचार हो गई थीं। इस तरह मोहिनी बाई का घर में आना परिवार विशेषकर पत्नी के लिए बहुत राहत भरा था। 

आज बहुत दिनों बाद पत्नी व सभी के चेहरे खिले हुए थे। माँ के स्थायी रूप से बिस्तर पकड़ लेने के कारण सभी की दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो गई थी। 

रसोई के बाहर कमरे में बैठे-बैठे मैंने अपनी नाक द्वारा जानी-परखी ख़ुशबू के आधार पर कहा, “लगता है आज जोधपुरी मिर्चीबड़े-कोफ्ते बन रहे हैं।” 

पत्नी रसोई से ही बोली, “हाँ, आज मोहिनी बाई के स्वागत में मिर्ची-बड़े बना रही हूँ जो माँ को भी बहुत पसन्द हैं।” 

माँ ने ख़ुश होकर कहा, “मोहिनी, तेरा आना शुभ रहा जो आज मिर्ची-बड़े खाने को मिलेंगे।” 

बिटिया ने कमरे में बैठे-बैठे ही कहा, “मम्मी, मैं पूरी-कढ़ी भी खाऊँगी।” 

“हाँ, तो वह भी बन रही है न,” बिटिया की मम्मी रसोई के भीतर से ही बोली। 

पत्नी की रूटीन अब व्यवस्थित हो गई थी। उसने नियमित रूप से स्कूल जाना भी शुरू कर दिया था। 

इधर माँ भी ख़ुश थीं और मोहिनी बाई भी। बाबूजी अब माॅर्निंग वाॅक के लिए रोज़ाना जाने लगे थे। सब लोगों का अपने-अपने काम में मन लगने लगा था। 

मोहिनी बाई ने अपने घर को तो जैसे भुला ही दिया था किन्तु महीने, दो महीने में एकाध बार उनकी बेटियाँ और बेटे उनसे मिलने आ जाते थे। 

पत्नी ने एक दिन बताया, “मोहिनी बाई से पता चला कि उन्होंने बीस हज़ार का क़र्ज़ ले रखा है, दो रुपये सैंकड़ा मासिक की ब्याज दर पर जिसका एक माह का ब्याज भी चार सौ रुपये होता है। क्या अच्छा नहीं हो जो हम उनका ब्याज चुकता कर दें ताकि उनका ब्याज तो बच जाए।” 

“बिल्कुल, आज ही . . . नेक काम में देरी क्यों?” मेरे कथन पर पत्नी ने कहा, “मोहिनी बाई नेक, ईमानदार व सेवा-भावी है इसलिए पैसे लेकर भागने वाली नहीं है।” 

“ठीक कहती हो . . . ” मैंने सहमति व्यक्त की। 

मोहिनी बाई अपनी उधार राशि चुकता हो जाने पर बेहद ख़ुश दिखी। उन्होंने मुझे व पत्नी को ढेर सारा आशीर्वाद दिया। 

मैंने एक दिन उन्हें पूछा, “बाई जी, एक बात बताओ, तुम्हारे दोनों बेटे क्या कुछ भी नहीं करते? क्या उन्हें हलवाई का काम नहीं आता?”

मोहिनी बाई बोली, “आता है, पर दुकान नहीं रही। ठेले पर कभी फल बेचते हैं तो कभी सब्ज़ियाँ। मेलों में बाहर कभी जलेबी या समोसे-चाट के ठेले भी लगाते हैं तो इनकम हो जाती है। इस तरह दाल-रोटी जितना जुगाड़ ही हो पाता है।” 

इस बीच मेरा स्थानान्तरण बोराड़ा से फतेहगढ़ हो गया और मुझे वहाँ शिफ़्ट होना पड़ा। नयी जगह धीरे-धीरे रास आने लगी। पत्नी का ट्रांसफ़र भी किसी तरह फतेहगढ़ करवा लिया। बाबूजी ने भी माॅर्निंग वाॅक के लिए अपना रूट तय कर लिया। जीवन नये स्थान पर उसी तरह एडजेस्ट होने लगा। बोराड़ा की तरह फतेहगढ़ में भी मैं रोगियों से हाॅस्पिटल व घर पर घिरा रहने लगा। बाबूजी व मोहिनी बाई को भी फतेहगढ़ का क्वार्टर अधिक माफ़िक लगा। यही नहीं, फतेहगढ़ सरवाड़ से बोराड़ा की अपेक्षा आधी दूरी पर ही था। 
दो साल बीते . . . समय के पहिये ने मोहिनी बाई के सरवाड़ स्थित घर में शनैः शनैः विकास के द्वार खोल दिए। उनके घर में बिजली-पानी के कनेक्शन लग गए। फिर टायलेट भी बन गया। यद्यपि पानी-बिजली के बिल भी मोहिनी बाई को ही भरने पड़ते जबकि इनका उपभोग बेटे करते थे। ख़र्च के नाम पर दोनों बेटे हाथ खड़े कर देते। 

बाबूजी इन दिनों बीमार रहने लगे थे। इस बार बीमारी से ठीक होने के बावजूद वे उठ न सके और उन्हें अजमेर स्थित बंद पड़े घर में लाना पड़ा जहाँ उनके प्राण पखेरू उड़ गए। 88 वर्षीय बाबूजी सदा वेदाध्ययन में लीन रहे; वे अन्तिम समय में भी प्रसन्नता से भरे हुए थे, उनके चेहरे पर दुनिया छोड़ने का कोई ग़म नहीं था, न ही कोई शिकन। इस बात का संतोष था कि उन्होंने अन्तिम साँस अपने घर में ली, हाॅस्पिटल में नहीं! 

पन्द्रह दिनों तक मोहिनी बाई ने अजमेर में रह रही अपनी बेटी को बुला कर चाय-नाश्ता-खाना बनाने का ज़िम्मा सौंप दिया था। 

इस बार भारी मन से फतेहगढ़ लौटना पड़ा जहाँ अब बाबूजी न थे . . . जिनकी उपस्थिति मात्र ही मुझे संबल प्रदान करती थी। मुझे माँ व परिवार को अजमेर छोड़ कर बीच में ही फतेहगढ़ आना पड़ा था। 

बाबूजी के कमरे में घुसने पर मैंने उस स्थान को छुआ जहाँ बाबूजी खाना खाते थे . . . मेरी आँखें भर आयीं। तभी मेरी दृष्टि उनकी दो चीज़ों से टकराई जो एक कोने में पड़ी थीं—बाबूजी की स्टिक व चप्पलें! मैंने बड़े जतन से स्टिक व चप्पलों को अपने हाथों में उठा लिया और फूट-फूट कर रोने लगा। बाबूजी इन्हीं चप्पलों को पहन कर व स्टिक को लेकर माॅर्निंग वाॅक के लिए निकलते थे। बाबूजी को अर्द्धमूर्च्छित अवस्था में फतेहगढ़ से अजमेर ले गए थे तो ये दोनों चीज़ यहीं छूट गई थीं। 

महीने भर बाद अजमेर स्थित मकान के ताला लगाकर हम सब फतेहगढ़ लौट आए थे। माँ ने भी मेरा, अपनी बहू, पोती व मोहिनी बाई का हौसला पाकर बाबूजी के बिना जीना सीख लिया था। 

दो-तीन साल फिर बीते। मोहिनी बाई को अपने दोनों बेटों की शादी की चिन्ता होने लगी थी। लेकिन बिना काम-धन्धे के बेटी कौन देता? मोहिनी बाई का बैंक बेलेंस भी अब क़रीब दो लाख तक पहुँच गया था। उन्होंने इस राशि से मकान में फ़्रिज, टीवी, कूलर, बेड, कुर्सियाँ तथा अन्य आवश्यक सामान ख़रीद लिए तथा दोनों बेटों को दस-दस हज़ार की राशि धन्धे को जमाने के लिए दे दी। 

दोनों के धन्धों में सुधार हुआ तो मोहिनी बाई ने चैन की साँस ली। अब लड़की ढूँढ़ना अपेक्षाकृत सरल हो गया था। 

एक दिन उन्होंने माँ से वादा कर कहा, “भुवाजी, मेरे दोनों बेटे भले लखपति बन जाएँ, आप जब तक जियोगी, मैं आपको छोड़ कर नहीं जाऊँगी।” 

माँ ने भीगी आँखों से कहा, “मोहिनी, तुझसे मेरा रिश्ता इस जन्म का ही नहीं, शायद पिछले जन्म का भी रहा होगा अन्यथा मेरी सेवा में बहू की नौकरी भी छूट जाती। मैं लाचार ज़रूर हूँ जो पैरों से चल नहीं सकती लेकिन भाग्यशाली भी हूँ जो मुझे बहू के हाथ की गर्मा-गर्म रोटियाँ मिल रही हैं। और तो और, वह सब्ज़ियाँ भी मुझसे पूछ-पूछ कर बनाती है। जो कुछ कमी थी, वह भी तेरे रूप में पूरी हो गई है।” 

मोहिनी बाई भावावेश में बोली, “भुवाजी, आपकी क़िस्मत अच्छी थी जो आपको ऐसी बहू मिल गई वरना आज के ज़माने में तो बेटे की शादी करना भी जुआ खेलने के समान है। कौन जाने, मेरी बहुएँ कैसी आएँगी . . . और मैं आपकी सेवा में न आती तो न मालूम, मेरी क्या गत हुई होती! पिछले पाँच सालों में भला हो डाॅ. सा. का, जो मेरे घर की दशा बदल गई, वरना न तो मैं रहती, न मेरा घर . . . ”

इस बीच बिटिया भी अपनी दादी के पास आकर बैठ गई थी। 

“क्या बात है दादीजी, सब ठीक तो है ना?” बिटिया ने पूछा तो माँ बोलीं, “देख मोहिनी, मेरी पोती मुझसे आते-जाते मीठे स्वर में बोलती है तो मन कितना ख़ुश हो जाता है . . . हे भगवान! मेरी इस पोती का कल्याण करना, इसे कभी दुःख न पहुँचे प्रभु!”

माँ ने वात्सल्य से अपनी पोती के सिर पर हाथ फेरा तो वह भी अपनी दादी से लिपट गई और बोली, “दादीजी, शिवरात्रि आने वाली है, उस दिन आपका जन्मदिन भी है। बताओ, क्या बनाएँ आपके लिए? पापा कह रहे थे कि आपको इमरती बहुत पसन्द है . . . इस बार जोधपुर से आपके लिए पापा इमरती व फीनी मँगवाएँगे। मिर्ची बड़े तो मम्मी घर पर ही बनाएँगी।” 

माँ रो दीं . . . बोलीं, “जब तेरे दादा जीवित थे तो हमेशा कचौड़ी बनवाते थे, उनको बहुत पसन्द थी कचौड़ियाँ।” 

“दादीजी, दादाजी–पापा की पसन्द एक जैसी है . . . दोनों को मिर्ची पसन्द नहीं है ना। और, आपकी, मम्मी व मेरी पसन्द एक जैसी . . . मिर्ची-टमाटर के शौक़ीन जो हैं!” कहते हुए बिटिया हँस पड़ी। 

बिटिया के साथ माँ भी हँस दीं। फिर अपने आँसू भी पौंछे। 

“दादीजी,” बिटिया ने कहा, “एक बात कहूँ, आप रोया मत करो . . . बस, हमेशा हँसती रहा करो। आप हँसती हो तो यह घर भी हँसता है। जो रोती हो तो इस घर की दीवारें तक उदास हो जाती हैं!”

“अच्छा बिटिया, नहीं रोऊँगी . . . बस, सदा ख़ुश रह तू!” माँ बहुत आत्मीयता से बोलीं। 

संयोग से मेरी पदोन्नति हो गई और मेरा पदस्थापन सरवाड़ ही हो गया। यह सुखद था माँ के लिए भी और मोहिनी बाई के लिए भी। मोहिनी बाई के लिए तो बेटों के लिए अब बहू ढूँढ़ना और भी आसान हो गया। अब वह जब चाहे, घर जाकर आ सकती थी। 

अगले साल भर में मोहिनी बाई ने अपने दोनों बेटों की शादी कर दी, सामूहिक विवाह सम्मेलन में। बावजूद अपनी सारी जमा पूँजी मकान के रंग-रोगन व अन्य कार्यों में ख़र्च हो गई। 

बेटों की शादी के बाद भी मोहिनी बाई को निराशा ही हाथ लगी। यद्यपि वह हमारे यहीं रहती थी लेकिन उनके घर की ख़बरें उन तक पहुँच जाती थीं। 

उनकी दोनों बहुओं में बिल्कुल भी नहीं बनती थी। इसके साथ ही दोनों भाइयों ने भी परस्पर बोलना छोड़ दिया था। रसोई भी एक से दो हो गईं लेकिन लैट-बाथ तो एक ही था, उसको लेकर ही झगड़ पड़ते थे। झगड़े बिना वजह होते थे। 

अब मोहिनी बाई की तीनों बेटियाँ अपने ससुराल से सरवाड़ आतीं तो हमारे घर आकर अपनी माँ से मिल लेतीं लेकिन भाइयों के पास नहीं जातीं क्योंकि दोनों बहुओं को ननदों से कोई मतलब नहीं था। न तो वे उन्हें चाय-नाश्ते के लिए पूछतीं और न ही बात करतीं। तीनों बेटियाँ मोहिनी बाई को अपना दुखड़ा सुना देतीं और मोहिनी बाई उनके लिए चाय-नाश्ता बना देती या खाना खिला देती। साथ में कुछ पैसे उनके हाथ पर रख देती। 
हद तो तब हो गई जब राखी के लिए बहनें आईं तो भाइयों ने राखी तो बँधवा लीं लेकिन बहनों के हाथ पर पैसे नहीं रखे। आख़िर यह काम भी मोहिनी बाई को ही करना पड़ा। 

मोहिनी बाई ने माँ को आकर कहा, “भुवाजी, मैंने बेटे पैदा करके धूल ही चाटी। घर में सब ज़रूरी सुविधाएँ व महँगे सामान जुटा कर भी जो बहुएँ इस घर की कुछ नहीं थीं, आज वे मालकिन बन बैठी हैं। मैं राखी पर वहाँ एक दिन के लिए गई तो भी मुझे व मेरी बेटियों को उन्होंने रोटी तक के लिए नहीं पूछा। मेरे रसोई के सामान व गैस सिलेंडर को भी क़ब्ज़े में लेकर हमें अँगूठा दिखा दिया।” 

“अरे . . . यदि ऐसा था तो तू व बेटियाँ यहाँ आ जाते! जो इच्छा होती, बना लेते,” माँ ने कहा। 

“बात वह नहीं भुवाजी . . . मैं आपके इस घर में जब तक हूँ तब तक तो ठीक, फिर क्या होगा मेरा?” कहते हुए मोहिनी बाई के मन का गुबार आँसुओं के रूप में बाहर निकल आया। 

मैं उस समय परामर्श कक्ष में बैठा हुआ मोहिनी बाई को सुन रहा था। उनकी बात व रूदन को सुन कर मैं उनके पास आकर बोला, “सुनो मोहिनी बाई, आप मेरे लिए माँ समान हैं! मेरी माँ की सेवा करते-करते आप मुझे मेरी माँ जैसी ही लगती हो।” 

मेरी बात को सुन कर वे फूट-फूट कर रो दीं। बोलीं, “मुझे दु:ख इस बात का है कि आज मेरे जाये भी पराये हो गए।” 

मैंने कहा, “आज आपको अपनी माँ के सामने कह रहा हूँ, हम लोग सेवानिवृत्ति के बाद जब अजमेर शिफ़्ट हो जाएँगे, तब भी आप हमारे घर में बतौर माँ के रह सकती हो . . . मेरी माँ न रहें तब भी।” 

मोहिनी बाई फिर से सिसक उठीं . . . बोलीं, “भुवाजी, जब मेरे बेटे ही सगे न हुए तो अपनी बहुओं का रोना भी क्या रोऊँ।” 

“मत रोओ मोहिनी,” माँ ने मोहिनी बाई के हाथ पर अपना हाथ रख कर कहा, “चिन्ता मत कर, जब एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा रास्ता अपने आप खुल जाता है।” 

“हाँ, भुवाजी। भगवान ने आप लोगों से मिलाकर मेरा साथ जो दिया है,” मोहिनी बाई संतोष के साथ बोलीं और रोना भी बंद कर दिया। 

माँ ने इस बार कहा, “देख मोहिनी, मेरी दोनों बेटियाँ, बड़ा बेटा-बहू, मेरे देवर-देवरानी व उनके बेटे-बहू यहाँ जब कभी आते हैं तो तेरी सेवा-भावना से प्रभावित होकर तेरी तारीफ़ करते हैं ना? सच कहूँ तो तू भी हमारे परिवार का हिस्सा बन गई है और भगवान भी तेरे जैसे अच्छे लोगों का हमेशा साथ देता है।” 

समय गुज़रता जा रहा था। इस बीच मोहिनी बाई के पोते-पोतियाँ भी हो गए थे। उन्हें गोद में लेकर वह ख़ुश होती थी। लेकिन उसकी दोनों बहुओं में खटपट अब भी जारी थी। कभी-कभी तो बात पुलिस तक पहुँच जाती थी। एक बार तो सरवाड़ थाना पुलिस ने दोनों भाइयों को शान्ति भंग करने के आरोप में थाने में बंद कर दिया था। फिर मोहिनी बाई ने मेरे नाम का हवाला देकर बेटों को थाने से छुड़वाया था। 

थाना हो या तहसील या उपखण्ड कार्यालय, मोहिनी बाई मेरा हवाला देकर अपना काम आसानी से करवा लेती थी। सबको पता चल गया था कि मोहिनी बाई क़स्बे के चिकित्सालय प्रभारी की माँ की सेवा में उनके घर पर ही रहती हैं। 

मोहिनी बाई के दोनों बेटे अपना-अपना काम कर रहे थे और कमाई भी। दोनों ने मोटरसाइकिल भी ख़रीद ली थी लेकिन दोनों की दुनिया अपनी पत्नी व बच्चों तक ही सीमित थी। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि उनकी एक विधवा माँ व तीन बहनें भी हैं। 

आख़िर एक दिन वह दुःखद दिन आ गया जब शाम को माँ की तबीयत अचानक बिगड़ गई और हम सब की उपस्थिति में उन्होंने अंतिम साँस ली। 

माँ ने जीवन के अन्तिम 12 वर्ष बिस्तर पर ही गुज़ारे थे लेकिन हँसी-ख़ुशी। उन्हें व्हील चेयर पर बिठाकर हम घर में घुमा देते थे। इस दौरान एक बार उन्हें मेरे भतीजे की शादी में जोधपुर ले गए थे और उससे पहले बाबूजी के निधन पर अजमेर। बाबूजी के जाने के 9 वर्षों बाद माँ की इस संसार से विदाई हुई थी। 

माँ के जाने का शायद सबसे अधिक दुःख मुझे ही हुआ था क्योंकि मैं चिकित्सालय समय के बाद हमेशा उनके बराबर वाले परामर्श कक्ष में उनकी आँखों के सामने रहता। वे लेटे-लेटे भी मुझे अपने कमरे से देख सकती थीं। उनके जाते ही उनका कमरा निष्प्राण हो गया था। 

तीन दिन बाद ही भावावेश में माँ के लिए एक कविता मेरी क़लम से निकली थी:

माँ, 
तुम्हारे जाने के बाद 
भावुक हो उठता हूँ 
उन सभी चीज़ों को देखकर 
जो तुम्हारी थीं 
छूकर देखता हूँ उन्हें 
तो होता है तुम्हारा अहसास 
कमरे की दीवारें 
पूछती हैं मुझसे सवाल 
कि तुम कहाँ चली गईं . . . 
रिश्ता था जिनसे तुम्हारा
अटूट, अगाध
रहती थीं जिन्हें तुम
दिन-रात तकतीं। 
उन दीवारों पर
तुम्हारी आँखों में उमड़े बिम्ब
चिपके पड़े हैं अनगिनत अब भी
बने रहेंगे वे
जीवन्त, आजीवन यूँ ही
मेरे हृदय-पटल पर भी
तुम्हारी मोहक छवि के साथ। 

मोहिनी बाई ने अपना वादा निभाया था कि वे मेरी माँ का सेवा-कार्य छोड़कर उनके जीते जी नहीं जायेंगी . . . किन्तु अब? 

मोहिनी बाई की घरेलू परिस्थितियाँ देखते हुए हमने तय किया कि कम से कम वे 6 साल तक जब तक हमारी सेवानिवृत्ति न हो जाए, प्रतिदिन अपने घर से सुबह आ जाएँ व शाम को खाना खाकर घर चली जाएँ। इस तरह उनके भरोसे हम निश्चिन्तता से घर छोड़कर ड्यूटी पर चले जाते थे और लंच भी मोहिनी बाई ही तैयार करती थी। घर पर आने वाले रोगियों को जवाब देना तथा घर की देखभाल करना उनके ही ज़िम्मे था। वह अपना हर काम पूर्ण निष्ठा व दक्षता के साथ पूरा करती रही। शाम का खाना पत्नी ही बनाती थी और मोहिनी बाई को सर्वप्रथम खिलाकर घर भेजती थी। 

इस बीच उनकी बेटियाँ मिलने आती रहतीं और मोहिनी बाई अपनी पगार में से उनकी अपेक्षाएँ पूरी करती रही। 

इधर हमारी सेवानिवृत्ति समीप आ रही थी और उधर उनके छोटे बेटे का दिमाग़ अपसेट हो गया। वह मानसिक रोगी बन गया था। यह मोहिनी बाई के लिए सबसे बड़ा झटका था। 

इसके बाद एक और झटका उन्हें तब लगा जब उनकी छोटी बहू अपने पति को इस अवस्था में छोड़ कर बच्चों सहित पीहर चली गई व वापस न आने का कह गई। 

अब बेटे को समय पर दवा देने व उसका दोनों समय खाना बनाने की ज़िम्मेदारी भी उनकी ही थी। 

मोहिनी बाई टूट गई . . . जिस बेटे की शादी के लिए उन्होंने ख़ूब हाथ-पैर मारे थे, वह बहू मंझधार में उन्हें छोड़ कर चली गयी, यह स्थिति अत्यन्त कष्टदायक बन गई थी। 

मानसिक रूप से बीमार बेटे का धंधा छूट गया था। जिस बेटे ने माँ की उपेक्षा की, उसका दिल दुखाया, आज वही माँ अपने कलेजे के टुकड़े को माफ़ कर उसकी सेवा में जुटी थी। 

मोहिनी बाई का जो भी बैंक बेलेंस बचा था, वह बेटे के उपचार की भेंट चढ़ चुका था। ऊपर से हमारा भी सेवानिवृत्ति के साथ ही अजमेर शिफ़्ट होना . . . हम असहाय से उन्हें देख रहे थे। 

अब न तो वे हमारे साथ जा सकती थी, न ही बेटे व अपने घर को छोड़ सकती थी। बड़े बेटे-बहू से भी उन्हें कोई आशा न थी। पचहत्तर वर्ष की आयु में, जब शरीर भी साथ नहीं दे रहा था, ऊपर से मधुमेह से पीड़ित मोहिनी बाई को दुर्भाग्य से ये दिन देखने बाक़ी थे . . . 

मोहिनी बाई आज से पन्द्रह साल पहले ख़ाली हाथ आयी थी। उन्होंने जो भी कमाया, सब घर को सँवारने व बेटों के धन्धे-पानी व विवाह में लगा दिए लेकिन अपने शेष जीवन के लिए कुछ न छोड़ा था। अब तो उनका एकमात्र सहारा विधवा व वृद्धावस्था पेंशन ही थी। 

हमारी विदाई भी मोहिनी बाई के लिए कम कष्टदायक न थी . . . सरवाड़ छोड़ते समय हमने उनके हाथ में ग्यारह हज़ार रुपये की तुच्छ राशि रखी तो वे फिर से रो पड़ी। 

मेरी तन्द्रा टूटी . . . मैं अभी तक कुर्सी पर बैठा मोहिनी बाई के निधन की पीड़ा को आत्मसात कर रहा था। 

“भगवान उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करें . . . ” इतना कहकर मैं भारी मन से उठ खड़ा हुआ। मोहिनी बाई अब वर्तमान नहीं रही, भूतकाल बन गई थी। 

मन के भीतर से आवाज़ उठी, “एक थी मोहिनी बाई, जिसने पूरा जीवन औरों की सेवा में बिता दिया लेकिन मरते दम तक अपनी सेवा किसी से न करायी! धन्य हो तुम, मोहिनी बाई . . . ”

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