डाॅक्टर, मच्छर और मरीज़
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. अखिलेश पालरिया1 Jun 2022 (अंक: 206, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझता हूँ जो मेरी दोस्ती एक ऐसे डाॅक्टर से हुई जिनकी आदतें मेरी आदतों से मिलती थीं। मेरे और उप ज़िला अस्पताल के प्रमुख चिकित्सा अधिकारी एवं फिजीशियन डाॅ. प्रियांशु के बीच दोस्ती पनपने का एक बड़ा कारण था, उनका व मेरा मच्छरों के साथ क़ातिलाना व्यवहार!
उनके घर के हर कमरे में डोर क्लोज़र लगा जाली का दरवाज़ा था ताकि कोई मच्छर घर में प्रवेश ही न कर सके और यदि घर के प्रवेश द्वार से मच्छर अनाधिकृत प्रवेश कर भी जाएँ तो इसके पहले कि वे दूसरे कमरे में घुसने की चेष्टा करें, उनका पहले ही इलेक्ट्रॉनिक रैकेट से सफ़ाया कर दिया जावे।
वह डाॅ. साहब से मेरी पहली मुलाक़ात थी . . . मुझे ज़ुकाम था और महीना था सितम्बर का। मैं डाॅ. सा. के परामर्श कक्ष के बाहर बने वेटिंग रूम में जाकर बैठा तो देखा, वहाँ मच्छरों की काफ़ी भरमार थी बावजूद इसके कि “माॅस्किटो आउट“ की मशीन पिन में ऑन थी।
चूँकि मैं मच्छरों का जन्मजात दुश्मन था, वहाँ बैठकर मेरा सारा ध्यान मच्छरों पर ही केन्द्रित हो गया। मच्छर कान में अपना बेसुरा राग अलापने के अलावा मेरे चेहरे के सामने व सिर के ऊपर घूमर नृत्य करते दिखे तो मेरा ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। एक दो धूर्त मच्छर चुपचाप मेरे शरीर के खुले भाग पर बुरी नीयत से बैठ भी गए लेकिन मेरी दृष्टि से बच नहीं पाए और कब मेरा दनदनाता हाथ उनको ढेर कर गया, उनको पूर्वाभास तक नहीं हुआ। ख़ैर, मेरी दृष्टि सामने बैठी काले बुर्क़े में बैठी एक महिला पर गई जिसका सम्पूर्ण शरीर बुर्क़े के कारण मच्छरों से सुरक्षित था। मच्छरों से परेशान मैं कुछ करता, इसके पहले ही मेरा बुलावा आ गया।
मैंने जाली का दरवाज़ा इतना ही खोला कि मेरा शरीर उसमें आ जाए फिर बिजली की गति से प्रवेश कर तुरन्त दरवाज़े को बन्द कर दिया। बाहर उड़ते मच्छरों को मेरे साथ अन्दर आने का मौक़ा ही न मिला। मेरी इस हरकत पर अन्दर बैठे डाॅक्टर ख़ुश हुए। मुझसे बहुत इज़्ज़त से बोले, “कहिएगा।”
“डाॅ. सा., बस ज़ुकाम से परेशान हूँ। कोई ऐसी दवा लिख दीजिये कि नाक बहने से रुक जाए।”
“मैं एक गोली लिख रहा हूँ . . . बस ठंडे पानी, कोल्ड ड्रिंक्स काम में न लें तथा तेज़ पंखे, कूलर, एसी आदि से बचें।”
“जी, बहुत अच्छा . . . सर, आपकी फ़ीस . . . ” कहते हुए मैंने पर्स निकाला।
“नहीं, रहने दीजिए . . . ” डाॅ. प्रियांशु ने मुस्कुरा कर कहा।
“क्यों, सर . . . ” मेरी “क्यों” पर उनका जवाब आया, “दरअसल मैं ख़ुश हूँ कि आप अकेले ही अन्दर आए, अपने साथ मच्छरों को नहीं लाए; आप जैसे विरले ही हैं, वरना . . . ”
मैंने हाथ जोड़ कर कहा, “जी, मुझे भी इस बात की तकलीफ़ है कि लोग जाली के दरवाज़े का महत्त्व ही नहीं समझते।”
“बिल्कुल, शहर में कई लोग डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया से ग्रसित हैं पर लगभग सभी जाली दरवाज़े को खोल कर उसे पकड़े रह जाते हैं मानो मच्छरों को भी अन्दर आने का न्योता दे रहे हों।”
“जी, मैंने अभी देखा . . . लोग आउट ऑफ़ सेन्स, मेरा मतलब सेन्सलेस और यहाँ तक कि नाॅनसेंस हो गए हैं, शायद।”
“यू आर राइट . . . ” डाॅ. प्रियांशु ने सहमति में कहा फिर बोले, “नेक्स्ट . . . ”
मैंने जाने से पहले बाहर वाले व्यक्ति को कहा, “पहले आप आ जाएँ।”
किन्तु अन्दर आने वाला व्यक्ति दरवाज़ा खोल कर खड़ा हो गया और अपने जूते धीरे-धीरे उतारने लगा।
मैं चिल्लाया, “अरे, क्या कर रहे हैं . . . दरवाज़ा बन्द करो, इसे पकड़ कर क्यों खड़े हैं? तुरन्त भीतर चले आओ . . . देखते नहीं, तुमने कितने मच्छर अन्दर घुसा दिए हैं।”
मरीज़ अक्खड़पन से बोला, “तो . . .? क्या देखते नहीं, मैं जूते उतार रहा हूँ। और, तुम आदमी होकर मच्छरों से डरते हो!”
“डरना पड़ता है . . . डरना चाहिए तुम्हें भी! और, जूते उतारने के लिए दरवाज़े को बैसाखी क्यों बना रहे हो? इससे तो अच्छा होता, आप घर से लकड़ी ही ले आते!”
वह अन्दर आया तब तक कई मच्छर भीतर प्रवेश कर गए थे।
“नाॅनसेंस . . . ” डाॅ. प्रियांशु उखड़ से गए थे। बोले, “हर व्यक्ति बस यही करता है . . . जूते उतारने के लिए उसे जाली के दरवाज़े का सहारा चाहिए। यही नहीं, उसके साथ का व्यक्ति अन्दर नहीं आ जाएगा, तब तक वह दरवाज़े को पूरी शक्ति के साथ खोल कर पकड़े रहेगा और इसमें अनावश्यक विलम्ब करने में अपनी शान समझेगा। यही नहीं, दरवाज़े पर बने दो फूट स्टेप्स चढ़ते समय वह जूते उन्हीं पायदान पर उतारेगा भले बाहर आने वाले व्यक्ति को अपना पैर रखने में परेशानी हो!”
“जी सर, जबकि वेटिंग रूम के बाहर गेट पर ही जूते उतारने का बोर्ड लगा है पर मरीज़ को इससे कोई सरोकार नहीं,” मैंने बात पूरी की।
“मैं आपसे प्रभावित हूँ क्योंकि एक आप ही ने मेरी भावनाएँ पूरी तरह समझी हैं,” डाॅ. प्रियांशु की बात से गद्गद् मैं हाथ जोड़ कर बाहर निकल आया।
दो दिन बाद मैं पुनः डाॅ. प्रियांशु के घर के वेटिंग रूम में था। उन्होंने मुझे देखकर कहा, “आइये, आइये . . . ” फिर मुझे अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठने के लिए कहा।
“कैसे हैं आप?” उन्होंने मुस्कुरा कर पूछा।
“सर, मैं तो दो गोलियों से ही ठीक हो गया . . . ”
“आप क्या करते हैं?”
“जी, एक प्राइवेट स्कूल चलाता हूँ . . . व्यंग्य लेखक भी हूँ!”
“ओ.के., वेरी गुड।”
तभी एक स्थानीय नेता आलोक जी जाली का गेट खोल कर खड़े हो गए, मैंने डाॅ. सा. की ओर देखा . . . उनके चेहरे के रंग बदल रहे थे।
“अन्दर आ जाइए . . . ” डाॅ. सा. ने धैर्यपूर्वक कहा।
आलोक जी अन्दर आए तब तक बहुत से मच्छरों को आसान पास मिल गया था भीतर घुसने का।
आते ही नेता जी ने आक्रमण कर दिया, “प्रभारी जी, शहर में कई लोग डेंगू से पीड़ित हैं।”
“हाँ, तो?”
“कुछ कीजिए आप . . . विधायक जी के आदेश से ही आपसे मिलने आया हूँ।”
“मैं तो अपना काम कर ही रहा हूँ, आप भी मदद कीजिए,” डाॅ. सा. उखड़े से बोले।
“बताइये, क्या मदद करूँ?” आलोक जी के नथुने फड़क उठे।
“विधायक महोदय को कह कर डाॅक्टर्स के ख़ाली पड़े पद भरवा दीजिए . . . एक डाॅक्टर को चार-चार डाॅक्टर्स के बराबर काम करना पड़ रहा है!” डाॅ. प्रियांशु तपाक से बोले।
“डाक्टरों की तो सभी जगह कमी है . . . अभी मुद्दा यह नहीं है बल्कि बीमारी पर नियंत्रण ज़रूरी है।”
डाॅ. प्रियांशु शालीनता से बोले, “हमने फ़ॉगिंग करवा दी है . . . अब हमारी टीमें घर-घर जाकर सर्वे कर रही हैं . . . बुखार के रोगियों की ब्लड स्लाइड बनवा कर प्रतिदिन चैक हो रही हैं . . . आवश्यक उपचार दिया जा रहा है . . . स्वास्थ्य शिक्षा भी दी जा रही है ताकि मच्छरों पर क़ाबू पाया जा सके . . . ”
“लेकिन परिणाम नहीं मिल रहे . . . इससे लगता है, आपके प्रयास नाकाफ़ी हैं।”
डाॅ. सा. की भृकुटि तन गई, “आप ही बता दीजिए, क्या किया जाए कि वांछित परिणाम मिल जाएँ . . . ”
“यह मैं नहीं जानता . . . यह काम स्वास्थ्य विभाग का है, आप लोग जानें।”
“देखिये साहब, जब तक जनता का सहयोग नहीं मिलेगा, परिणाम कैसे मिलेंगे?” डाॅ. प्रियांशु ने गम्भीरता से कहा तो आलोक जी ने भौंहे चढ़ाकर पूछा, “कैसा सहयोग?”
“आप तो पढ़े-लिखे हैं ना और सम्पन्न भी; क्या आपके घर में मच्छर हैं?”
“बहुत ज़्यादा हैं!” आलोक जी ने तत्परता से उत्तर दिया।
“तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन हैं?”
“निश्चित रूप से बीमारी को रोकना आपके विभाग का काम है . . . ”
डाॅ. सा. स्वर में मधुरता लाकर बोले, “चलिए, आपके घर से शुरू करते हैं . . . आपके घर में कूलर चलता है?”
“ए.सी. भी चलता है व कूलर भी।”
“कूलर का पानी कब-कब बदलते हैं?” डाॅ. प्रियांशु ने कुरेदा।
“यह मैं नहीं जानता।”
“क्यों? आप अपने घर के लिए जवाबदेह नहीं बनना चाहते तो मैं इस शहर की 50 हज़ार जनसंख्या का जवाबदेह कैसे बनूँगा?”
आलोक जी सकपका कर बोले, “आप पी.एम.ओ. हैं, इसलिए आपको जवाबदेह बनना पड़ेगा।”
“हमारी टीमें शहर के अलग-अलग वार्डों में घर-घर अलख जगा रही हैं कि कूलर का पानी बदलते रहें . . . छत पर पड़े टायरों में बरसात का पानी इकट्ठा न होने दें . . . पानी की टँकी की नियमित सफ़ाई करें, उन्हें अच्छी तरह ढक कर भी रखें . . . अपने घर के आस-पास इकट्ठे हुए पानी में जले तेल या केरोसिन की बूँदें डालें . . . यदि ऐसा करेंगे तो मच्छर पैदा नहीं होंगे। अपने शरीर को यथासंभव कपड़े से कवर रखें . . . मच्छरदानी का प्रयोग करें . . . घर में जाली के दरवाज़े लगवाएँ . . . ऐसा करने से मच्छर काट नहीं पाएँगे। अब यह घर के मुखिया की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह परिवार को समुचित सुरक्षा प्रदान करें . . . ”
आलोक जी ने कटाक्ष किया, “क्या आप यह उम्मीद करते हैं कि ग़रीब आदमी जाली के दरवाज़े लगवाएँगे?”
डाॅ. प्रियांशु ने कहा, “यह एक बेहतर विकल्प है . . . संभवतः सर्वश्रेष्ठ विकल्प! ज़रा बताएँ, गुटखे खाते समय, बीड़ी या शराब पीते समय ग़रीब को अपनी ग़रीबी याद क्यों नहीं आती? जबकि नशा करना तो रोज़ का ख़र्च है, दरवाज़े का विकल्प तो सिंगल टाइम इन्वेस्टमेंट है . . . ”
“ठीक है डाॅ. सा., आप तो अपनी ही टाँग ऊँची रखेंगे . . . लेकिन ध्यान रहे, कोई मर गया तो जवाब देना भारी पड़ जाएगा आपको,” कहते हुए आलोक जी उठ कर जाने को हुए . . . उन्होंने एक हाथ से दरवाज़ा खोला और उसे पकड़ कर खड़े हो गए बहुत देर तक। डाॅ. प्रियांशु बाहर निकल आए और उनका हाथ हटा कर जाली गेट बन्द कर दिया। मच्छरों का कमरे के भीतर आने का क्रम रुक गया।
वे भीतर आकर मुझसे कह उठे, “यार, लिख ही डालो इस विषय पर भी एक व्यंग्य-डाॅक्टर, मच्छर और मरीज़।”
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shaily 2022/05/17 09:25 AM
हा हा हा, मच्छर, बहुत मनोरंजन हुआ। वाह