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संवेदनाओं के सरोवर में डुबकी लगाने का नाम है—'छूटा हुआ सामान'

लघुकथा संग्रह: छूटा हुआ सामान
लघुकथाकार: डाॅ. शील कौशिक
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला
प्रकाशन वर्ष: 2021
पृष्ठ: 120
मूल्य: ` 250

सिरसा (हरियाणा) निवासी वरिष्ठ साहित्यकार, प्रकृति प्रेमी, माँ गंगा की कुशल चितेरी, हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत डाॅ. शील कौशिक जो कहानी, कविता, लघुकथा, बाल साहित्य सभी की समृद्ध हस्ताक्षर हैं, के लघुकथा संग्रह—'छूटा हुआ सामान' की अधिकतर लघुकथाएँ संवेदना एवं भावनात्मक स्तर पर मन को भिगोती सी प्रतीत होती हैं और पाठक की आँखें तबीयत से नम कर देती हैं। 

संग्रह की लघुकथा—'छूटा हुआ सामान' ऐसी ही उत्कृष्ट रचना है जिसमें ससुराल से पहली बार पीहर आई एक नवविवाहिता को वापस ससुराल लिवाने उसके पति आने को होते हैं तो उसकी माँ का कथन, “बेटी, अपना सामान इकट्ठा कर लो, कुछ छूट गया तो तुम्हें ही परेशानी होगी।”

वह जल्दबाज़ी में वे सारी स्मृतियाँ बटोर लेना चाहती है जो पीहर में रहते छूट गई थीं जैसे जहाँ से वह चूड़ियाँ, हेयर पिन, रबर बैंड, काॅपी आदि ख़रीदती थी . . . जिन गलियों से गुज़रती हुई वह सहेलियों के साथ उछल-कूद करती थी, झूला झूलती थी . . . 

माँ उसे इस तरह घर के बाहर फुदकते देखती है तो उलाहना देती है, “कितनी बार कहा है तुझे, अपना सामान समेट ले बेटा!”

वह फफक कर रो पड़ती है, “माँ, सुबह से छूटा हुआ सामान ही तो बटोर रही हूँ!”

'जाति के पार' दलित और सवर्ण का भेद समाप्त करती हृदय को छूने वाली लघुकथा है जिसमें साथ वाली कोठी एक दलित ने ले ली है। तब से सुनयना के मन में खलबली मची है कि कम से कम पड़ोस तो ऐसा होना चाहिए जिसके साथ दो घड़ी हँस-बोल सकें . . . खा-पी सकें . . . ज़रूरत करने पर लेन-देन कर सकें। 

पड़ोस के आठ वर्षीय लड़के बबलू को गेट के बाहर उदास बैठा देख सुनयना एक बार तो मुँह फेर लिया। 

कुछ देर बाद सुनयना फिर बाहर आई। पाँच बजे गए और उसकी माँ अभी तक ड्यूटी से न आई। 

सुनयना ने उसका बैग अपने कंधे पर टाँगा और उसका हाथ पकड़कर अंदर ले गई। 

“यहाँ बैठो राजू की सीट पर!” डाइनिंग टेबल पर उसे बिठाते हुए सुनयना ने रसोई से थाली में सब्ज़ी और गरम चपाती लाकर दी। 

बबलू की माँ बदहवास सी अंदर आई तो सामने बबलू को खाना खाते हुए देखकर सुनयना की ओर देखा, “धन्यवाद, बहन!”

सुनयना ने उसके जुड़े हाथों को अपने हाथों में थाम लिया। 

लघुकथा—'बोल न मुन्ना' में धनपत पत्नी के स्वर्गवासी होने के बाद एकाकीपन से जूझते हुए सुबह से शाम तक बेटे के ऑफ़िस से लौटने की प्रतीक्षा में आँखें दरवाज़े पर लगाए रहता है। 

वह बेटे से बतियाने को मुँह खोलता है लेकिन बेटा, “क्या है पिताजी, क्यों बोलते रहते हो हरदम . . . चुप नहीं रहा जाता क्या आपसे . . .?” 

साँप सूँघ गया हो जैसे धनपति को। यादों का बगुला सा उठा। जब शंकर पाँच वर्ष का था, उससे एक शब्द भी न बोला जाता था। 

“मुन्ना बोलो न-अम्माँ . . . ”

और जब मुन्ना ने पहला अक्षर बोला तो गाँव भर में लड्डू बाँटे थे। 

आँखों के कोर से कब आँसू ढुलकने लगे, धनपत को पता ही न चला। 

संग्रह में संवेदनाओं का उफान पाठक के हृदय को चीर कर रख देता है। हर लघुकथा में संवेदनाओं का रंग अलग-अलग हो सकता है लेकिन आँसुओं का वेग समान होता है जो लगभग सभी लघुकथाओं को संवेदना के स्तर पर उच्चासन प्रदान कर देता है। 

शील कौशिक जी की लघुकथाएँ शब्दों में प्राण फूँकने जैसी हैं। लघुकथा—'अंतिम यात्रा' में अपने दोस्त की अंतिम यात्रा में जाते समय हमेशा तेज़ चलाने वाले रोहन को पत्नी टोक देती है लेकिन आज वह हैरान है कि आज वे इधर-उधर झाँकते हुए चींटी की तरह क्यों रेंग रहे हैं? 

रोहन का उत्तर, “इस रास्ते पर मेरी भी यह अंतिम यात्रा है उमा!” लघुकथा का पंचवाक्य है। 

निश्चय ही डाॅ. शील कौशिक की लघुकथाओं के विषय भिन्न-भिन्न हैं लेकिन इनके केन्द्र में संवेदना ही है। 

वृद्धावस्था में पति-पत्नी के एकाकीपन पर लिखी लघुकथा—'आश्वस्ति' के ये अंश:

“कहाँ हो जी . . .?” 

“अरे भाग्यवान! बार-बार क्यों पूछती रहती हो, कहाँ हो जी? पता तो है तुझे, यहीं घर में हूँ।”

“नाराज क्यों होते हो? अब हम दोनों के अलावा यहाँ है ही कौन, जो एक-दूसरे की खोज-खबर रखे . . . ”

“वह सब तो ठीक है, पर मेरे 'हाँ-हूँ' कह देने से क्या फ़र्क़ पड़ता है?” 

“पड़ता है . . . फ़र्क पड़ता है जी . . . ”

लघुकथा, 'बेबसी' में कोरोना काल में हुई त्रासदी का भाव-विभोर कर देने वाला अंश:

“माँ, घर चलो!”

“मेरी एक बात मानेगा, मेरा अंतिम संस्कार यहीं इस शिवपुरी में करना। देख बेटा! मेरी यह इच्छा अवश्य पूरी करना।”

गहरी नींद से जागा हो जैसे नवीन। लावारिस लाशों को जलाने वाली थड़ी पर उसकी माँ का थैली में बंद शव रखा था। वह सुरक्षा घेरे को तोड़कर उस ओर दौड़ा। पीपीई किट पहने नगरपालिका के पाँच-छह मज़बूत हाथों ने उसे जकड़ लिया। माँ का शव लपलपाती लपटों के बीच धू-धू कर जलने लगा। 

लघुकथाएँ 'वही किरदार', 'पहचान', 'जो बोया है', 'अच्छे मम्मी-पापा', 'मिटते शब्द', 'नियुक्ति पत्र', 'इन्सानियत की खुशबू', 'न्याय', 'पड़ोसन', 'कलाकार', 'औरत', 'कड़वी चाय', 'असल कमाई', 'चिड़िया ने कहा था' आदि भी ऐसी ही मर्मस्पर्शी लघुकथाएँ हैं। 

लेखिका शील जी की भाषा शैली प्रभावी, प्रवाहमयी तथा पाठकों को बाँध कर रखने वाली है। लघुकथाओं में संवाद जानदार हैं। 

पुस्तक का मुद्रण आकर्षक, गेटअप सुन्दर है। प्रूफ की त्रुटियाँ न के बराबर हैं। 

संग्रह पठनीय, संग्रहणीय बन पड़ा है। 

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