अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

वृद्ध विमर्श का विभिन्न कोणों से सूक्ष्म पड़ताल करता मर्मस्पर्शी उपन्यास है 'सांध्य पथिक'

उपन्यास: सांध्य पथिक
उपन्यासकार: डॉ. सूरज सिंह नेगी
प्रकाशक: इंडिया नेटबुक्स, नोएडा
प्रकाशन वर्ष: 2022
पृष्ठ: 223
मूल्य: ₹499 (हार्ड बाउंड) 

नैकाना (अल्मोड़ा-उत्तराखंड) में जन्मे वर्तमान में अतिरिक्त कलेक्टर, सवाईमाधोपुर डॉ. सूरज सिंह नेगी पात्रों के विगत की स्मृतियों को बारीक़ी से कुरेदने में सिद्धहस्त मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार हैं। वे आदर्श समाज की स्थापना के चितेरे, शोषितों के दुःखों को आत्मसात करते हुए कटु यथार्थ का हर हालत में आदर्शोन्मुखी समाधान चाहते हैं, साथ ही सुदृढ़ समाज की परिकल्पना के पोषक हैं जहाँ ईमानदारी, सच्चरित्रता, कर्त्तव्यपरायणता व भाईचारा जैसे समाज के मज़बूत स्तम्भों के सहारे मानव जाति को सभ्य एवं उन्नत बनाने के मार्ग पर ले जाने के प्रबलतम पक्षधर हैं। 

‘पाती अपनों को’ के प्रणेता डॉ. नेगी अपने पाँचवें उपन्यास—‘सांध्य पथिक’ में अतीत की घटनाओं तथा उनके प्रति संतान के मानवताविहीन रवैये के साथ उसका संभावित समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। 

आज समाज में वृद्धों के प्रति जो उदासीनता पसरी है, उसने निःसंदेह मानवता को हद दर्जे तक कलंकित किया है। वस्तुतः यह स्थिति समाज में अपनों द्वारा उपेक्षित मौन का घिनौना एवं विकृत स्वरूप है जो हर हालत में अक्षम्य है; को उपन्यास का केन्द्रीय विषय बनाने वाले डॉ. सूरज सिंह नेगी उपन्यास के मुख्य नायक सोमबाबू के माध्यम से समाज को एक स्पष्ट संदेश देने में सफल रहे हैं। 

अधिक समय नहीं हुआ जब तीन पीढ़ियाँ बड़े मज़े से एक साथ रहती थीं—बच्चे, उनके माँ-बाप और दादा-दादी। बच्चे माँ की अंगुली पकड़ कर चलते ज़रूर थे, लेकिन उन्हें दादा-दादी की गोद भी भरपूर नसीब होती थी। बच्चों के कान दादी-नानी के मुख से कहानियाँ सुनने को उतावले रहते थे। बच्चों के लिए जितनी माँ ज़रूरी होती थी, उतनी ही दादी और उसके दादा . . . दादा-दादी से बच्चे प्यार करते तो उनसे डरते भी थे। घर में दादा-दादी का ही आदेश चलता था। 

समय के चक्र का इन रिश्तों पर कालान्तर में ग्रहण लग गया। पहले बच्चों से दादा-दादी दूर कर दिए गए और अब संस्कारहीनता के चलते वयस्क बच्चों ने ख़ुद माँ-बाप को ही दूर कर दिया। माँ-बाप एकाकी जीवन जीने लगे और दादा-दादी को वृद्धाश्रमों में शरण लेनी पड़ी। 

इन्हीं सब बातों की पड़ताल करता है उपन्यास—‘सांध्य पथिक’। 

उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में कई ज्वलन्त प्रश्न उठाए हैं। जैसे:

—क्या वृद्धजन सामान की कोई निर्जीव गठरी हैं, जिसे जब इच्छा हुई, यहाँ-वहाँ धकेल दिया? 
—इस बुढ़ापे में न जाने कितना बड़ा पेट हो गया है जो भरता ही नहीं! 
—न जाने एक दिन में कितनी ही बार मरते हैं अभागे वृद्ध! 
—हमारे बुज़ुर्ग अपने ही हाथों बनाए आशियाने के किसी कोने में सिर छिपाने के लिए जगह तलाश रहे हैं! 
—क्या परिवार के बड़े-बूढ़ों के पास बच्चों का बतियाना समय की बर्बादी है? 
—हम जहाँ रह रहे हैं, वहाँ नीरसता नहीं, भावनाओं की आवश्यकता है! 

लेखक ने वृद्धजनों के त्याग व टूटने की कहानी का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण चंद पंक्तियों में कुछ यूँ बयाँ किया है:

“जानते हो एक इंसान अन्दर से कब टूटता है? जब वह अपनों से बहुत सी अपेक्षाएँ पाल लेता है, उनकी ख़ुशियों के ख़ातिर अपना सब कुछ न्योछावर कर देता है। अपना सुख-चैन, पसन्द-नापसन्द। वह हाड़-मांस का पुतला अवश्य होता है लेकिन उसके अन्दर का इंसान सदैव अपने घर-परिवार, बच्चे, गृहस्थी तक सीमित होकर रह जाता है। इन सबके लिए सोचने और कुछ करने में उसे जो आनन्दानुभूति होती है वह अवर्णनीय है। न सर्दी देखता, न गर्मी और न बारिश। वह तो केवल और केवल अपनों के लिए ख़ुशियाँ तलाशता रहता है। उसकी अपनी कोई चाहत, कोई इच्छा जैसे होती ही नहीं है। लेकिन जब उसे कड़वी सच्चाई का सामना करना पड़े, उसे आईना दिखाया जाता है पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वह एक लुटे हुए मुसाफ़िर की तरह बीच चौराहे पर आ तो जाता है लेकिन उसके लिए सभी रास्ते तब तक बंद हो चुके होते हैं।” (पृष्ठ: 30) 

वृद्धजनों की पीड़ा को समझने के लिए निम्न उद्धरण द्रष्टव्य है:

“रिटायर्ड व्यक्ति शायद उम्र के बंधन से इतना नहीं थकता जितना उसे एहसास करा दिया जाता है कि वह रिटायर हो चुका है। अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं है।” (पृष्ठ: 33) 

निम्न सन्दर्भ वृद्धों के महत्त्व को प्रतिपादित करने में समर्थ हैं:

“हम ढलती साँझ के सूरज ही सही लेकिन कभी देखा उस सूरज को जो अपनी किरणों से पूरे आसमान को सुरमई कर देता है। वहाँ एक विश्वास होता है, जीवन जीने की आशा होती है और उन किरणों से आने वाला प्रकाश पूरे जगत को विश्वास दिलाता है कि डरो मत, कुछ ही देर का अँधेरा है, जल्द ही उजास होगा।” (पृष्ठ: 48) 

“प्रत्येक वृद्ध ज्ञान और अनुभव की एक चलती-फिरती पाठशाला थे। कितना अभागा होगा वह परिवार और समाज जिसने इन अनमोल हीरों को ठोकर मारकर वृद्धाश्रम तक पहुँचा दिया।” (पृष्ठ: 61) 

स्थिति यदा-कदा इससे उलट भी हो सकती है जब सेवा एवं देखभाल के बावजूद वृद्धजन बच्चों की भावनाओं को समझे बग़ैर उनमें दोष निकालना आरम्भ कर देते हैं और अपनी बात थोप देने का प्रयास करते हैं:

“सभी बच्चे और परिवार एक जैसे नहीं होते। वहाँ अपनों से बड़ा सम्मान मिलता है, उनकी बुज़ुर्गियत के मायने हुआ करते हैं लेकिन कोई बुज़ुर्ग बच्चों की सेवा-टहल में ही सदैव कमी ढूँढ़ता रहे तो इसमें दोष भला बच्चों का थोड़े ही है।” (पृष्ठ: 85) 

“बच्चे पैदा क्या हुए उन पर अनेक बंदिशें लाद दी गईं, ये करो-वो करो, यह न करो। यहाँ जाओ-वहाँ न जाओ। बच्चों को लेकर अपनी अलग ही दुनिया बसा ली। संवेदनाएँ क्या होती हैं, पारिवारिक प्रेम क्या होता है यह तो कभी सिखाया ही नहीं गया और अब कह रहे हैं बच्चों ने हमारी भावनाओं को न समझा।” (पृष्ठ: 89) 

“आख़िर बच्चों की संवेदनशून्यता के लिए ज़िम्मेदार कौन है? क्या अकेले बच्चे ही हैं या माँ-बाप भी उसमें भागीदार हैं? संयुक्त परिवार प्रथा का विघटन, रातों-रात तमाम सुख-सुविधाओं को प्राप्त कर लेने की प्रवृत्ति, अपनी इच्छाएँ बच्चों पर थोपने देने का चलन, अपनी जड़ों से जुड़े रहने को प्रगति में बाधक मानना क्या यह वो कारण नहीं जो समाज में एकाकी प्रवृत्ति और संवेदनशून्यता के लिए ज़िम्मेदार हैं।” (पृष्ठ: 89) 

कई बार माँ-बाप और बच्चों के बीच ग़लतफ़हमी पैदा हो जाती है जिससे भी उनके बीच की दूरी बढ़ती जाती है:

“और यह भी हो सकता है कि बेटे अपने माँ-बाप को अधिक समय नहीं दे पाते। दूसरी तरफ़ माँ-बाप इसे उनका तिरस्कार समझ बैठते हैं। बस यहीं से मानसिक द्वन्द्व शुरू हो जाता है जिसे समय रहते ठीक न किया गया तो यह घरों में अशांति का कारण बन जाता है।” (पृष्ठ: 135) 

बुढ़ापा एक तरह से बचपन की ही पुनरावृत्ति होती है। यह बात समझ में आने पर नई पीढ़ी का नज़रिया बदल सकती है क्योंकि आज के युवा बचपन के उस दौर से गुज़रे हैं और आगे उन्हें भी पुनः इसी स्थिति से गुज़रना पड़ेगा:

“बुढ़ापा व्यक्ति को बचपन में ले जाता है, कई बार बाल मन की चपलता, ज़िद, वृद्धावस्था आते-आते इंसान में समाहित हो जाती है। इसीलिए वृद्धों को बच्चों की तरह देखभाल और प्यार की ज़रूरत होती है। वृद्धावस्था में वृद्धजन बच्चे और बच्चे माँ-बाप की भूमिका में आ जाते हैं।” (पृष्ठ: 137) 

“दरअसल उम्र के इस पड़ाव पर आकर इंसान को न केवल भरपेट रोटी, छत और कपड़े चाहिए अपितु उससे भी बढ़कर चाहिए अपनों के साथ। कोई हो जिससे वह अपने मन में उठ रहे जज़्बातों को बयाँ कर सके। उसे एहसास दिला सके कि अभी उस घर-परिवार में उसका अपना वुजूद है।” (पृष्ठ: 137) 

डॉ. नेगी का उपन्यास अनेक भावुक प्रसंगों के ज़रिए मन को द्रवित कर देता है। दस अध्यायों में सिमटा यह उपन्यास अपने माँ-बाप ही नहीं, बल्कि माटी के प्रति भी कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित करता है। उपन्यास का आठवाँ भाग बहुत भावुक कर देने वाला है . . . गाँव की विज़िट बेहद सुन्दर, कलात्मक, रोचक एवं अविस्मरणीय बन पड़ी है! नम आँखों को पोंछना पड़ता है तब कहीं आगे पढ़ पाते हैं लेकिन पढ़ते-पढ़ते फिर आँखें नम हो जाती हैं। उपन्यास के नायक सोमबाबू सपत्नीक जब सेवानिवृत्ति के बाद पहली बार अपने गाँव आते हैं तब गाँव वालों का उन्हें पूर्ववत स्नेह मिलता है लेकिन अब उनके माँ-बाबूजी वहाँ जीवित नहीं होते। यह द्रष्टव्य देखिए:

“इस माटी का भी क़र्ज़ है प्रत्येक इंसान पर। जिस तरह माँ-बाप के ऋण से उऋण नहीं हो सकते, ठीक उसी तरह माटी के क़र्ज़ को भी चुकाना सम्भव नहीं है। हमारे कितने पूर्वजों की यादें और सपने जुड़े हुए हैं इस माटी से।” (पृष्ठ: 176) 

“सच कहती थी माँ! वक़्त भी तो माँ-बाप का ही एक दूसरा रूप है जो सब कुछ सिखा जाता है।” (पृष्ठ: 151) 

इंसान तो इंसान पेड़ तक से मोह में बँध जाता है मानव:

“सोमबाबू पेड़ के समीप से उठना नहीं चाह रहे थे। उसकी छाँव तले बैठकर उनको महसूस हो रहा था जैसे अपने ही किसी बुज़ुर्ग के साये में बैठे हों।” (पृष्ठ: 153) 

यह बात महत्त्वपूर्ण है कि वृद्धाश्रम शहरों में ही होते हैं, गाँवों में नहीं! सोमबाबू गाँवों में वृद्धजनों के सुकून का रहस्य जान गए थे। इस बाबत लेखक अपनी बात को निम्न पंक्तियों में स्पष्ट कर देते हैं:

“गाँव में तो सब उलट था। वहाँ वृद्धों के पास समय ही न था। ज्ञान और अनुभव के पिटारे उन वृद्धजन के पास सदैव ताँता लगा रहता था। प्रत्येक उम्र के व्यक्ति के लिए उनके पास कुछ न कुछ अनुभव था। श्रद्धा भी यह सब महसूस कर रही थी। वह देख रही थी कि घर की सब महिलाएँ परिवार की उम्रदराज़ महिलाओं का सम्मान करती थीं। खाने में क्या बनेगा, कौन सी वस्तु कहाँ रखी है, किसे क्या काम सम्पन्न करना होगा।” (पृष्ठ: 169) 

“शहरों में उगते सूरज को प्रणाम और ढलते सूरज को विदाई की विचारधारा पनप चुकी है। लोग जीवन भर इसी मृगमरीचिका में लगे रहते हैं कि उनका आने वाला कल अच्छा होगा। आने वाली पीढ़ी उनको सुख देगी। वे तो यह भी भूल जाते हैं कि जो बुज़ुर्ग पीढ़ी के पास है; जिसे ढलता सूरज समझ विदा देने की तैयारी हो रही है, आख़िर उसे सम्मान तो दिया जाए और यह एहसास करा दिया जाए कि वह अकेले नहीं हैं, सब उसके साथ हैं . . . लेकिन अफ़सोस! ऐसा नहीं है।” (पृष्ठ: 169) 

“शहर में विशालकाय कोठी में रहने, महँगी गाड़ियों में घूमने, महँगे विदेशी कपड़े पहनने आदि को जीवन का पर्याय मान लिया गया है। लेकिन वे सब अन्दर से खोखले हैं। ज़िन्दगी की असल कमाई और ख़ुशी देखनी है तो गाँव में ज़रूर आना होगा।” (पृष्ठ: 170) 

डॉ. नेगी ने अपने उपन्यास में शहरों में वृद्धों की समस्या का समाधान भी प्रस्तुत किया है:

“दरअसल वृद्धावस्था की समस्या उम्र से जुड़ी हुई नहीं है। इसमें बहुत बड़ा योगदान है मनःस्थिति का। यदि वृद्धजन क्रियाशील रहें, समाज की मुख्यधारा से जुड़े रहें, उन्हें अपनों का प्यार-अपनापन मिले, उनके अनुभवों पर युवा पीढ़ी चले तो शायद वृद्धजन समस्या से एक हद तक छुटकारा मिल सकता है लेकिन उम्र के एक पड़ाव के पश्चात् जीता जागता इंसान जिसके भीतर भावना, करुणा, संवेदना, इच्छा है इसे भुला दिया जाता है और मात्र वस्तु समझने की भूल की जाने लगती है वह भी बेकाम की। इसी मानसिकता के चलते आज अनेक घरों में वृद्धजन अपमान का घूँट पीने को मजबूर हैं। जहाँ परिवार के प्रत्येक सदस्य की अपनी पसंद-नापसंद है, रहने को अपना कमरा है, भोजन में उनकी पसन्द का ख़्याल रखा जाता है। यहाँ तक कि पालतू जानवर के लिए भी खाने-पीने, रहने और ज़रूरत का ख़्याल रखा जाता है। लेकिन वृद्धों की तो जैसे कोई इच्छा-भावना है ही नहीं। वह जैसे सामान की कोई निर्जीव गठरी हों जिसे जब इच्छा हुई यहाँ-वहाँ धकेल दिया। जिसे घर में एक बोझ समझने की मानसिकता सबके ज़ेहन में घर कर जाती हो।” (पृष्ठ: 179) 

“लोग हैं जिनके पास यद्यपि बहुत अधिक धन-सम्पदा नहीं है, जो समस्त ज़िम्मेदारियों से मुक्त हैं लेकिन आज भी उम्र के इस पड़ाव में वे क्रियाशील हैं। समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है, उनको यह आभास नहीं होने दिया गया कि अब वह बेकाम के हैं। उलट यही लोग अधिक क्रियाशील और मस्त लगते हैं।” (पृष्ठ: 181) 

“युवा पीढ़ी के लिए बुज़ुर्ग सच्चे मार्गदर्शक, हितैषी हो सकते हैं तो वृद्धजन के लिए युवा शक्ति उनके छोड़े गए अधूरे सपनों को पूरा करने का माध्यम।” (पृष्ठ: 206) 

“वृद्धों को यदि इनका खोया हुआ आत्मविश्वास वापस लौटा दिया जाए तो वे ख़ुद जी उठेंगे।” (पृष्ठ: 207) 

निष्कर्ष में ‘सांध्य पथिक’ को वृद्ध विमर्श पर सम्पूर्ण उपन्यास कहा जा सकता है क्योंकि वृद्धजनों की सामाजिक स्थिति की विभिन्न कोणों से सूक्ष्म पड़ताल की गई है। इसमें मुख्य आदर्श पात्रों—सोमबाबू व श्रद्धा के इर्द-गिर्द घूमते कथानक द्वारा कई अन्य चरित्रों के साथ वृद्धाश्रम के कुछ वृद्धजनों का भी बख़ूबी चरित्र चित्रण है। उपन्यास में संवादों के माध्यम से कथानक निरन्तर उत्कर्ष की ओर बढ़ता है। भाषा शैली सरल, सुबोध, प्रभावी है तथा संवाद तर्कसंगत, भावपूर्ण एवं सारगर्भित हैं। निश्चय ही उपन्यास अपने उद्देश्य में पूर्णरूपेण सफल हुआ है। 

पुस्तक का आवरण पृष्ठ बहुत आकर्षक है तथा मुद्रण श्रेष्ठ है जिसमें प्रूफ़ की त्रुटियाँ नगण्य हैं। 

चूँकि उपन्यास समसामयिक तथा आधुनिक परिवेश पर आधारित है अतः आज की युवा-वयस्क-प्रौढ़ पीढ़ी के लिए प्रेरक व समाज को बदलने का आह्वान करता है। आवश्यकता है, इसे घर-घर पहुँचाया जाए। यह तभी सम्भव है जब इसे स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाए। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं