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कथा साहित्य | लघुकथा रचना गौड़ 'भारती'21 Feb 2019
घर में मेहमान आने वाले थे अपनी जवान लड़की को मैंने ढंग के हिन्दुस्तानी कपड़े पहनने को कहा तो- "मम्मां! आप नहीं जानतीं आजकल तो लड़कियाँ इससे भी छोटे-छोटे कपड़े पहनतीं हैं।"
"पहनतीं होगीं, यह उनके संस्कार हैं।"
"मम्मां, जस्ट चिल।"
कुछ ही दिन में बच्चों के ज़ोर देने पर हमारा पूरा परिवार एक फ़िल्म देखने गया। उसमें बच्चों व पेरेन्ट्स की बातचीत कुछ इस प्रकार थी- "लड़कियों को आज़ादी मिलनी चाहिए, ये उनका हक़ है।"
उसकी मम्मी गुस्से से-"अधिक आज़ादी से लड़कियाँ प्रैग्नेंट हो जाती हैं।"
ए.सी. थिएटर में भी मुझे पसीना आ गया। दुनियाँ कहाँ जा रही है। इसका मतलब ये फ़िल्में ही बच्चों को भ्रष्ट कर रही हैं।
ख़ैर! मूड फ्रैश करने के लिए सोचा थोड़ी शॉपिंग ही कर लें। साड़ियाँ दिखाते हुए दुकानदार- "ये देखिए, करीना कपूर ने पहनीं थी बिल्कुल ऐसी साड़ी। है न वही।"
"............."
"अरे साब! इसका तो प्रियंका चांपड़ा ने ऐड किया है।"
हम साड़ियाँ छोड़ दुकान से नीचे आ गए, पता नहीं साड़ियाँ पसन्द नहीं थीं या कि उसकी सोच। कुछ दिन पूर्व ही पूनम ने अपने टेलर से कहा था- "मास्टर जी! बैकलैस ब्लाउज़ बनाइए सिर्फ एक ब्रोच वाला।"
किसे दोष दें फिल्मों को, फिल्म स्टार को जो उन्हें बेच रहे हैं या बिकने वाले घिनौने विचार को। पूर्वी बार-बार पूछ रही थी- "मम्मां, मैं ये ड्रेस ले लूँ, प्लीज़।"
मैंने झुँझलाकर स्वीकृति में सिर हिला दिया।
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