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गर्ल्स, प्लीज़! 

 

न हँसी . . . न कोई आवाज़ . . . न बच्चों का शोरगुल। यह कैसे सम्भव है . . . ख़ासकर थोड़ा ज़ोर से बोलना . . . ठहाका लगाना भवेश का! 

मेरे लिए आश्चर्य-सा था, इसलिए कि बिन्नी के घर से आती आवाज़ों की आदी हो चुकी थी। इन दिनों ख़ामोशी-सी थी और जब मैं बालकनी में झाँकने की कोशिश करती तो बिन्नी भी दिखती नज़र नहीं आती। सवाल मन में मथ रहा था। और जब किसी सवाल के प्रति मन अधीर होता है तो जवाब जानने के लिए बेचैन हो उठता है . . . पर जानें तो कैसे? 

किसी के व्यक्तिगत जीवन में झाँकना कहीं से भी उचित नहीं था लेकिन इस उत्सुक मन को कैसे समझाएँ? आख़िर एक दिन अवसर मिल ही गया जब वह सब्ज़ी लेने नीचे आई। मैंने देखा अब भी वह ख़मोश है उसकी ख़ामोशी मुझे खली और मैंने सब्ज़ी लेकर लौटते वक़्त उसकी बाँह पकड़ ली।

वह चौंक उठी . . . प्रश्न भरी नज़रों से मेरी ओर देखा। 

मैंने कहा, “बिन्नी! आज मैं तुम्हारे हाथ की चाय पीना चाहती हूँ बालकनी से तुम्हारे चाय की प्रशंसा कई बार तुम्हारे पति के मुँह से सुन चुकी हूँ।” 

“चलिए,” वह केवल इतना ही बोली। 

मैंने भी अवसर गँवाना उचित न समझ, उसके साथ हो ली। और जब उसके ड्राइंग रूम में पहुँची तो सजावट को देख बिन्नी के कुशल गृहणी होने का एहसास भी हुआ; सब कुछ सजा-सजाया . . . साफ़-सुथरा था। 

वह बोली, “बैठिये, मैं चाय लेकर के आती हूँ।” 

वह चाय बनाने चली गयी। मैं सोफ़े पर बैठे टेबल पर रखी ‘नारी अस्मिता’ हिंदी मैग्ज़ीन के पन्ने उलटने लगी, लेकिन पढ़ नहीं पायी। मन के कोने में छिपी उसकी अन्तरंग स्थिति को जानने की उत्सुकता बार-बार ताक-झाँक करने को प्रेरित कर रही थी। इसलिए मैं उठ खड़ी हुई और किचन की ओर बढ़ गयी। बढ़ते हुए मैंने उसके बेडरूम की ओर देखा जिसका दरवाज़ा खुला था। सुन्दर-सी चादर बेड पर, उससे सटा एक छोटा-सा टेबल, टेबल पर एक लैम्प और फिर बेड के बायीं ओर ड्रेसिंग टेबल . . . सभी कुछ सलीक़े से। यह नारी का कौतूहल होता है घरेलू रहन-सहन देखने का, और मैं भी नारी ही थी। 

मैं आगे बढ़ गयी . . . मुझे आते देख वह बोल उठी, “आप क्यूँ चली आईं? मैं तो आ ही रही थी।” 

“देख रही थी कि तुम कितनी अच्छी गृहणी हो।” 

इस बार वह मुस्कुराई . . . बोली, “चाय के साथ कुछ लेंगी आप?” 

“नहीं नहीं, कुछ नहीं चाहिए।”

मैं वापस ड्राइंग रूम में आ गई। चाय की चुस्की के साथ मैंने पूछा, “भवेश जी कहीं बाहर गए हैं क्या? उनकी आवाज़ें नहीं सुनाई देती इन दिनों?” 

“नहीं वह यहीं हैं, ऑफ़िस का लोड कुछ ज़्यादा हो गया है आजकल।”

“सच बोल रही हो या कुछ और बात है? देखो बिन्नी! हम भी औरत ही हैं किसी के घरेलू वातावरण को देख पति-पत्नी के रिश्ते में आई अनबन का अंदाज़ा लग ही जाता है। सच तो यह है कि इधर कई दिनों से नोटिस कर रही हूँ कि घर का माहौल पहले जैसा नहीं है। न भवेश जी का ठहाका . . . और ना तुम्हारी खिलखिलाहट। जब भी आती है तो बच्चों को डाँटने की आवाज़। कभी तुम तो कभी भवेश जी। ऐसे में बच्चों पर बुरा प्रभाव पर सकता है, मैं तो कहूँगी की यदि कोई बात है तो मुझसे शेयर कर सकती हो। मैं तुम्हारी बड़ी बहन की तरह हूँ, पड़ोस में रहने से क्या कोई रिश्ता नहीं बन सकता?” 

उसकी आँखें भर आयीं . . . क़रीब जाकर उसकी पीठ सहलाने लगी। सांत्वना और मिठास मन के भीतर की कड़वाहट को बाहर ला देती है। वह भावुक हो चली . . . जो बाँध था वह टूटकर फ़व्वारा बन गया। उसने बतलाया—उसकी गृहस्थी वैसे तो ख़ुशहाल है पर आर्थिक तंगी सदा बनी रहती है। बच्चों का स्कूल, ट्यूशन आदि के साथ-साथ कई ऐसे आवश्यक ख़र्च हैं जो समय पर पूरे नहीं हो पाते हैं जिसका प्रभाव बच्चों पर मनोवैज्ञानिक रूप से पड़ता है। इसलिए मैं स्वयं जॉब करना चाहती हूँ। जॉब के लिए कई आवेदन भी दिए। बड़ी मुश्किल से एक कम्पनी का ऑफ़र मिला, पर वे हैं कि मान ही नहीं रहे हैं। उलटे मेरी ख़ुशख़बरी पर आग बबूला हो उठे। बहस बढ़ती गयी और ग़ुस्से में मुझपर हाथ भी उठा डाला। फिर स्वयं कहने लगे कि—मैं नहीं चाहता कि लोग मुझे भी दत्ता बाबू समझें और पीठ पीछे कहें, ‘पत्नी तो बॉस के बग़ल में बैठ पचास लाख की गाड़ी पर घूमती है और अपने को दिखावे के लिए पचास हज़ार की फटफटी पर . . . चलते हैं . . . अरे भाई! यह सब ऊपर-ऊपर है, भीतर से दत्ता बाबू की तो पौ बारह . . . छी . . . !’ 

“और उस दिन से मैं चुप हो गयी हूँ। क्यों मैं जीवन में कुछ नहीं कर सकती . . . क्या जॉब का अर्थ अस्तित्व को खो देना होता है . . .? आप ही बोलो कल्पना दी?” बोलते-बोलते कंधे से लिपट कर रो पड़ी वह। 

मैंने उसे समझाया, “पुरुष सदा अपने को सामर्थ्यवान समझता है, इसलिए वह नारी पर अपना अधिकार जमाने की कोशिश करता है लेकिन तुम्हारी समस्या संशय में समाहित है। एक डर है जिसे मैं भवेश में मैं देख रही हूँ। भवेश भी इसी समाज का है जिसमें दत्ता बाबू जैसे लोगों को देखा जाता है। तथा दत्ता बाबू की पत्नी जैसी नारी को भी लोग देखते हैं। मैं भी समझती हूँ भवेश तुम्हें बहुत चाहता है। मैंने उसे तुम्हारे साथ हँसते-बोलते सुना है पर पुरुष के भीतर का अहं और नारी चरित्र प्रति देखा-देखी अविश्वास ने उसे बाँध रखा है। उसके भीतर में वह भय घर कर गया है जो नारी को स्वतंत्र देखना नहीं चाहता है; दूसरी ओर तुम्हारा हठ, उसके भय को और बढ़ावा दे रहा है, जिसका परिणाम आज तुम स्वयं भोग रही हो।”

“पर मैं क्या करूँ एक तरफ़ उनकी आय, दूसरी तरफ़ बच्चों का भविष्य और फिर बढ़ती जा रही कमरतोड़ महँगाई। ऐसे में क्या दोनों को क़दम से क़दम मिलाकर नहीं चलना चाहिए?” 

“चलना चाहिए . . . क्यों नहीं चलना चाहिए? . . . लेकिन जब घर में शान्ति नहीं होगी तो क़दम से क़दम मिलाना कभी-कभी नासूर बन जाता है। ऐसे में कोई दूसरा विकल्प ढूँढ़ना चाहिए जिससे पुरुष का विश्वास भी बना रहे और हमारा मक़सद भी पूरा हो जाए। मेरे विचार से तुम कुछ ट्यूशन वर्क कर लो इसमें मैं भी तुम्हारी मदद कर दूँगी। 

“बोलो! क्या कहती हो?” 

वह कुछ नहीं बोली, पर मैंने उसके चेहरे के आत्मविश्वास की एक झलक देखी। 

और कुछ दिनों बाद बच्चों का शोरगुल भी सुनाई दिया, भवेश का ठहाका भी और बिन्नी की खिलखिलाहट भी। साफ़ संकेत था सुलह हो गयी है। 

मन को शान्ति मिली, चलो अच्छा हुआ।

बात आई-गई हो गयी। मैं भी भूल गयी बिन्नी की बातों को। तभी अचानक एक दिन हँसते हुए बिन्नी मेरे घर आ धमकी, बोली, “दीदी सड़क के मुहाने पर एक नया रेस्तरां खुला है कल उसकी ओपनिंग है ठीक 11 बजे आ जाइयेगा,” इसके बाद वह रुकी नहीं भागती-सी चली गयी। 

उस वक़्त वह दो बच्चों की माँ नहीं बल्कि उछलती-कूदती बच्ची नज़र आई। शायद उसके मन ने मुझे अपना मान लिया था इसलिए अधिकारपूर्वक बोल भाग गई। 

अगले दिन 11 बजे से पूर्व ही मैं तैयार होकर निकल पड़ी। रेस्तरां ओपनिंग की उत्सुकता ने मुझे भी रोमांचित कर दिया था और जब मैं सड़क के मुहाने पर पहुँची तो देखा बहुत सारी लड़कियाँ, महिलायें, वहाँ खड़ी हैं। मुझे देखते ही, बिन्नी ने लड़कियों के कान में कुछ कहा। सुनते ही सभी दौड़ती हुई मेरे पास आईं और मेरे गले में मालाएँ डालकर समवेत स्वर में कहा–आईये दीदी आपका स्वागत है . . . 

मैं अवाक्! . . . कोई शब्द नहीं। ऐसा इसलिए नहीं कि महिलाएँ और बच्चियाँ मेरे स्वागत में खड़ी थीं। मेरे हाथ में कैंची थी, ओपनिंग रिबन कट करने हेतु बल्कि इसलिए कि यह वही स्थल था जहाँ कुछ दिन पहले तक छप्पर के नीचे एक बूढ़ी महिला चाय बेचा करती थी . . . और . . . और आज वह दुलहन-सी सजी रेस्तरां के काउंटर पर बैठी थी जहाँ एक बोर्ड लगा था—जिसपर लिखा था “गर्ल्स प्लीज़!” . . . रेस्तरां का नाम। 

मेरी आँखें भर आई। सच में बिन्नी ने विकल्प में एक नई राह निकाल ली थी अपने जैसी माहिलाओं के लिए 'गर्ल्स, प्लीज़!’ के सम्बोधन के साथ। 

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