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खोता हुआ बचपन और उसकी यादें . . . 

देखा जाए तो शायद ही हम कभी अपने बचपन को याद करते हैं। वक़्त कहाँ जो बचपन की ओर झाँकने की कोशिश भी करें। भाग-दौड़ ने ज़िन्दगी को इतना उलझा दिया है कि सहज जीवन जीना अब सहज नहीं किसी के लिए। ऐसा इसलिए कि हमारी पारिवारिक संरचना बदल गई है। हम संयुक्त परिवार से एकल परिवार की ओर आ गये हैं। फलस्वरूप हमारे संस्कारों से प्राचीन मान्यताएँ समाप्त हो गई है। कल तक जो हम बड़े ताऊ, मँझले ताऊ, बड़ी ताई, मँझली ताई, लाल चाचा, लाल चाची, मँझली भाभी आदि के साथ गाँव के नाम का नाम जोड़ कर बहुओं को पुकारने वाली जो परंपरा थी, वह समाप्त हो गई और वह प्यार अपनापन भी खो गया। हमें याद है तब ग़लतियाँ कर माँ के पास न जाकर हम, ताई या चाची के आँचल के पीछे छिप जाया करते थे और तब हमारी ग़लतियों को ग़लती न मानते हुए वो हमारे लिए लड़ने को निकल जातीं। चाहे वह किसी के बग़ीचे से आम तोड़ने लेने की बात हो या किसी को खेलते वक़्त मार-पीट कर बैठने की बात हो। सदा काकी, चाची, ताई ही आगे आ जाती। माँ यदि कभी हमें ग़लत ठहराने की कोशिश करती तो माँ को ही सुनना पड़ता, “आपको तो सदा हमरे लल्ला में ही दोष नज़र आता है, परसावाली का बेटा कितना शैतान है जैसे जानती ही नहीं।” और फिर अपने कमरे में ले जाकर टॉफ़ी, बिस्कुट आदि देकर प्यार करने लगती। कितना बल मिल जाता था तब। फिर माँ को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती . . . आम तोड़ो, नीबू तोड़ो, अमरूद तोड़ो . . . कुछ भी बदमाशी कर दो . . . पीछे तो ताई, काकी, चाची तो है ही। 

वास्तव में इस तरह के जीवन में आपसी प्रेम होता है कोई व्यक्तिवाद नहीं। ऐसे में यदि किसी को किसी काम के लिए समय नहीं होता तो दूसरे को कह दिया जाता और वह अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर देता। किन्तु आज की स्थिति दूसरी है। हम सोचते बहुत हैं। वह भी कल को लेकर। इसलिए न बीती बातों को याद करना चाहते हैं और न ही याद रखना चाहते हैं। हम बाईपास होकर निकलना चाहते हैं। हम और हमारा व्यक्तिगत परिवार। यहाँ तक कि हम अपने माता-पिता से कट जाते हैं जिन्होंने हमें योग्यताएँ दी, हमें इस योग्य बनाया जिससे हम अपने पैरों पर खड़े हो सकें। और जब हम अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तो हमारा बचपन बहुत पीछे छूट जाता है ख़ासकर तब, जब हम ख़ुद एक परिवार को लेकर आगे बढ़ते हैं। 

उस वक़्त भी हमें हमारे बचपन की यादें नहीं आती जब हम अपने बच्चों को देखते हैं। वजह हमारे पास समय नहीं होता। सुबह जब हम उठते हैं तो हमारे बच्चे स्कूल गये होते हैं और रात को लौटते-लौटते सो गये होते हैं। बस हॉय-हेलो का संवाद जैसी जीवन शैली हो जाती है। बच्चों के साथ बचपन की तरह जीना, जब नहीं होता तो बच्चे भी बचपन को नहीं पहचान पाते, उसका आनंद नहीं ले पाते जो अनमोल वक़्त होता है किसी भी बच्चे के लिए। 

इसमें दोष बच्चों का नहीं, हमारा होता है जो गाँव में पाँच-छह वर्षों तक खेलने-कूदने में बिताने की परंपरा थी, वह भूली-बिसरी बातें हो गई हैं। अब तो दो वर्ष में ही किड्स-स्कूल पहुँचा दिये जाते हैं और अपने को मुक्त कर लेते हैं अच्छी शिक्षा के नाम पर। कहते हैं, “बच्चों में अनुशासन आता है, अँग्रेज़ी में बोलना, पढ़ना सीख जाता है जिससे आगे की पढ़ाई आसान हो जाती है। मेडिकल, इंजीनियरिंग, प्रशासनिक आदि में सफल हो पाते हैं।”

गोया कि आज तक बचपन का लुत्फ़ उठाने वाले, गाँव की मिट्टी में खेलने-कूदने वाले ऐसे पदों पर पहुँच ही न पाये हों। 

दरअसल आधुनिकता की दौड़ में हम अपनी ज़मीन से अलग हो गये हैं। हमारे गाँव की ज़मीन अब हमारे लिए छोटी हो गई है। खेत-खलिहान भी अब पहले जैसे नहीं बचे हैं। माता-पिता अपनी ज़मीनें बेच कर बच्चों को पढ़ा रहे हैं और बच्चे पढ़ाई पढ़ कर अपने माता-पिता को भूल रहे हैं। फिर उन्हें अपने गाँव के माँ-बाप का लाड़-प्यार कहाँ से याद रहेगा और कहाँ से वे याद आयेंगे साथी जो गाँव में ही रह गये। बचपन यदि गाँव में छूट गया तो रिश्ते भी गाँव में ही रह गए। नई पौध, अब नये युग के बच्चे हो गये हैं। खेल के खिलौने आधुनिक हो गये हैं, और सबसे बड़ी बात सब कुछ अब मोबाइल में मिलने लगा है। न माँ को बच्चों के साथ खेलकर अपने बचपन की यादें ताज़ा करने की फ़ुर्सत है और न पिता को अपने बचपन की बातें, अपने रिश्ते-नाते की जानकारी देने की चाहत है। 

बस ज़िन्दगी है भागने-दौड़ने-सी और उसके बीच खोता हुआ बचपन है—नई कोंपलों का। 

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