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बोझ

अपने लिए मुझे
किसी क़िस्से की चाहत नहीं 
और न चाहत कि—
कोई मेरे किसी क़िस्से का बयाँ करे। 
 
कोई मुझेअच्छा कहे 
सच कहूँ तो ऐसा मैंने 
कुछ किया ही नहीं। 
 
किया तो इतना ही कि 
अपने कंधे को 
मज़बूत बनाये रखा
और नर्म दिल को 
चोट के आगे कभी
विवश नहीं होने दिया। 
 
उम्र मेरी बढ़ती गई
बोझ भी बढ़ता गया
दो से चार हो गये तो
दो कंधे, मुझसे कहीं ज़्यादा
मज़बूत भी हो गये
जिसके लिये ही
कंधे को मज़बूत बनाये रखा। 
 
पर अब मेरे 
कमज़ोर पड़ते कंधे को
मेरे ही द्वारा मज़बूत किए कंधे को
आँखें बंद रखने की बीमारी हो गई है। 
 
मैं भी उन सबों में नहीं जो
अंदर से टूटते मन के पट को 
किसी के आगे खोल कर रख दूँ। 
 
मेरी मुस्कुराहटें
सामने से कभी झूठी नहीं दिखती
न कंधा किसी बोझ से झुका दिखता
और न आँखें किसी दर्द को
बोलती होती है
इसलिए क़िस्से भी नहीं बनते। 
 
तो फिर 
चाहतें कैसी? 
आम आदमी . . . 
आम इंसान . . . 
पर आम सी चाहत नहीं
जो मेरे बोझ को भी 
कोई समझ सके
और कुछ नहीं तो
दो शब्द
झूठे से ही
मेरे नर्म दिल के लिए कह सके। 

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