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खुसरो का मक़बरा

निसार बेगम का मक़बरा

शाह बेगम का मक़बरा

ख़ुसरो बाग़ प्रवेश द्वार

गुनगुनी धूप की वो सैर

बेल-बूटों, फूल-पत्तियों और तरह-तरह के डिज़ाइनों से ऐसे सुसज्जित कि अपनी ओर सहज ही खींच लेते हैं। हर एक कोना किसी-न-किसी आकृति और कला से भरा हुआ। फूलों, पत्तियों और सुराहियों की कलाकारी ऐसी कि लगता जैसे उन्हें दीवार पर नहीं बल्कि कैनवास पर बनाया गया हो। भाँति-भाँति के पेड़ों और ऊँची चहारदीवारी से घिरीं ये कलाकृतियाँ अनायास ही लुभा जाती हैं। समकोण सड़कों पर चलते हुए ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के बीच से इन सुंदर नमूनों को देखा जा सकता है। घास के मैदान में खेलते बच्चों, सैर करते लोगों और अमरूद के पेड़ों के बीच ये मक़बरे सहज ही आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं। एक सीध में बने चारों मक़बरे किसी चित्रकार द्वारा एक क़तार में उकेरी गई इमारतों से प्रतीत होते हैं। सबसे बायें पूरब की ओर बने खुसरो के मक़बरे के पास ही उनके घोड़े की भी क़ब्र है। मक़बरे के सामने लगी सूचनापट्टी अगर न बताए, तो घोड़े की क़ब्र को तो वही जान सकता है, जो पहले कभी गाइड के साथ घूमा हो। इसी के पास बिछी कुर्सियों या घास पर बैठकर ठंडी हवा लेते हुए चारोंं मक़बरों को एक साथ देखा जा सकता है।  

हम कोई बीस–पच्चीस लोग जब पहुँचे, तो दोपहर हो चुकी थी और सूरज की गुनगुनी धूप फैली हुई थी। अपने शहर की कड़कड़ाती ठंड को झेलने के बाद अब इलाहाबाद की सर्दियाँ भी ख़ुशनुमा लगती हैं। हर रोज़ निकलने वाली हल्की धूप कहीं भी बेलौस घूमने को अक़्सर उकसाती है। समूह की एक तस्वीर लेने बाद हम सभी पार्क में बिखर गए।  

किसी बाग़ या पार्क को बलात् निहारे जाने का निश्चय तो शायद ही कभी सफल होता है। उसकी ख़ूबसूरती की ओर हम स्वयं नहीं जाते, बल्कि वो हमें अपने आप खींचती  है। ऐसा ही सहज आकर्षण इस पार्क ने भी मुझमें ऐसा पैदा किया कि मेरे पैर रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। एक के बाद एक सुकून भरे दृश्यों को अपने में समाहित कर लेने की जल्दी मेरे फ़ोन को अनेक तस्वीरों से भर रही थी। हर एक कोने के हर एक डिज़ाइन को क़ैद कर लेने की जल्दी अनायास ही इधर-उधर भगाए जा रही थी। आँखें कि हर एक अनोखी आकृति को निहारने के चक्कर में विश्राम का मौक़ा तक नहीं दे रहीं थीं।  

खुसरो के ठीक पश्चिम में बने निसार बेगम (खुसरो की बहिन) और उसके एकदम पश्चिम में बने शाह बेगम (खुसरो की माँ) के मक़बरों के बीच एक ख़ाली जलकुण्ड की दीवारों पर बैठकर लोग तस्वीरें लेने में व्यस्त थे। इन दोनों ऊँचे-ऊँचे चबूतरों पर बने मक़बरों की सीढ़ियों के एक पायदान से दूसरे पायदान के बीच सामान्य से अधिक ऊँचाई केवल पाँच-दस पायदान चढ़ने के बाद ही पैरों में हल्की शिकन पैदा कर देती थी। उतरते वक़्त तो ऐसा लगता था कि पैर नीचे वाले पायदान पर नहीं, बल्कि सीधे ज़मीन पर पड़ेंगे। हालाँकि इनके पास जाने की लालसा और दूर से दिखने वाली सजावट इन सीढ़ियों को चढ़ते वक़्त अधिक सोचने का मौक़ा ही नहीं देती थी।  

एकाध घण्टे तक मक़बरों के कोने-कोने की कला को देखने के चक्कर में भागते-भागते अब हम थक चुके थे, सो हमने मैदान के किनारे पड़ी कुछ कुर्सियों पर लोगों को सोते और उनकी जैकेटों को झूलते देख घास पर बैठना उचित समझा। ज़मीन पर बैठे हुए इन मक़बरों का दृश्य और भी आकर्षक लग रहा था। ऐसी इच्छा जागृत होती थी कि अगर मैं कोई चित्रकार होता, तो झट से उनकी ख़ूबसूरती को रंगों में उतार देता।  

धूप के बीच थोड़ी देर ठंडी हवा का आनंद लेने के बाद अब हम लोगों ने सबसे पश्चिम में बने बीबी तमोलन (खुसरो की पत्नी) के मक़बरे को देखने का निश्चय किया। ये मक़बरा बहुत बड़ा तो नहीं है, लेकिन इसके भी कोने-कोने में कलाकारी दिखती है। मक़बरे में क़ब्र न देखकर जब हमने सूचना पट्टिका की ओर नज़र डाली, तो पता चला कि उन्हें यहाँ नहीं दफ़नाया गया था। 

वहाँ से दक्षिण दिशा में शाह बेगम के मक़बरे के ठीक सामने के रास्ते से हम लोग पार्क के सबसे बड़े दरवाज़े की ओर चल दिए। रास्ते के दोनों ओर अमरूद के पेड़ों पर एकाध कच्चे अमरूद दिख रहे थे। लगभग पचास क़दम के पक्के रास्ते को नापने के बाद हम दरवाज़े पर पहुँच गए थे। इतना ऊँचा दरवाज़ा की बाहर से देख लो, तो अंदर किसी बड़े महल की कल्पना करने लग जाओ। बड़ी-बड़ी कीलों का आर-पार निकलकर मुड़ा होना उसे बहुत ख़ूबसूरत तो नहीं बना रहा था लेकिन उसकी मज़बूती को ज़रूर बयाँ कर रहा था। पार्क घूमकर आने के बाद ऐसे ही उसके इतिहास के बारे में कुछ जानने की इच्छा से पढ़े गए एक लेख से मुझे पता चला कि पहले यही मुख्य दरवाज़ा हुआ करता था। अब इसे पीछे का दरवाज़ा बनाकर केवल एक छोटे से भाग को ही प्रवेश के लिए खोला गया है। 

वहाँ से वापस लौटते वक़्त हम लोग अमरूद के पेड़ों के बीच पके अमरूद खोजने की इच्छा से कुछ देर उन्हें निहारते रहे। पेड़ों पर लगे और ज़मीन पर गिरे एकाध बहुत छोटे-छोटे अमरूदों के सिवा वहाँ कुछ भी न दिखा। वहाँ से हम लोग बीबी तमोलन के मक़बरे के पास घास में बैठे दो-चार दोस्तों को देख वहाँ चल दिये। दो-एक कविताओं को सुनते और सुनाते वक़्त अब धूप की गर्मी महसूस होने लगी थी। थोड़ी देर बैठने के बाद हम लोग तिरंगे के रंगों से पुते ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के पास बनी हरी जाली में बंद नर्सरी को देखते हुए प्रवेश द्वार की ओर चल पड़े।  

अब बाग़ से पचास क़दम दूर स्थित 'प्रयागराज जंक्शन' की ट्रेनों का भोंपू सुनाई देने लगा था। आज की खुसरो बाग़ घूमने की आकांक्षा को पूरा कर हम द्वार पर पहुँच चुके थे। बेतरतीबी से जुड़े पत्थरों से बनी ऊँची चहारदीवारी के बीच यह द्वार भी मुड़ी हुई कीलों के जमघट से भरा पड़ा था। पूर्व में पिछले दरवाज़े की तरह इस्तेमाल होने वाला यह द्वार दूसरे द्वार से अपेक्षाकृत छोटा था लेकिन अब मुख्य द्वार बना दिया गया था। 

दरवाज़े से बाहर निकलकर मेरे मोबाइल के कैमरे ने एक बार पुनः उसकी तस्वीर को क़ैद कर लिया। बाहर ठेलों की भीड़ के बीच आते-जाते रिक्शों में एक पर बैठकर हम लोग वापस घर चल दिए। घर आने के बाद भी मक़बरों की सुंदरता और द्वार पर चमकता 'खुसरो बाग़' आँखों के सामने से हटने का नाम ही नहीं ले रहे थे। 

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